पटना : 15वें वित्त आयोग का गठन नवंबर 2017 में हुआ था. गठन के एक माह बाद दिसम्बर में ही आयोग ने सभी राज्यों को पत्र भेज कर सुझाव मांगे थे. आयोग का कहना था कि राज्यों से मिले सुझावों पर ही आयोग की सिफारिशें आधारित होंगी. इस संबंध में बिहार से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रारंभिक सुझाव इसी वर्ष फरवरी माह में भेज दिये गये हैं. अब वित्त आयोग को भेजे गये पत्र के संदर्भ में मुख्यमंत्री ने महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने विचार किये हैं.
बिहार के संबंध में महत्वपूर्ण मुद्दों पर पर व्यक्त किये विचार
ऐतिहासिक रूप से पक्षपातपूर्ण नीतियों एवं विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक कारणों के चलते बिहार का विकास बाधित रहा है. वित्त आयोग एवं योजना आयोग के वित्तीय हस्तांतरण भी राज्यों के बीच संतुलन सुनिश्चित करने में असफल रहे हैं, जिससे क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ा है तथा बिहार इसका सबसे बड़ा भुक्तभोगी रहा है. पिछले 12-13 वर्षों में राज्य सरकार ने पिछड़ेपन को दूर करने तथा राज्य को विकास, समृद्धि एवं समरसता के पथ पर अग्रसर करने का अनवरत प्रयास किया है. इस अवधि में प्रतिकूल एवं भेदभावपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद राज्य ने दो अंकों का विकास दर हासिल करने में सफलता पायी है.
राज्य सरकार ने दृढ़तापूर्वक न्याय के साथ विकास की बुनियाद रखी है. तेजी से प्रगति करने के बावजूद बिहार, प्रति व्यक्ति आय तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक एवं आर्थिक सेवाओं पर प्रति व्यक्ति खर्च में अब भी सबसे निचले पायदान पर है. बिहार के विभाजन के उपरांत प्रमुख उद्योगों के राज्य में नहीं रहने के कारण सरकारी एवं निजी निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. केंद्र सरकार ने भी इस क्षेत्रीय विषमता को दूर करने के लिए राज्य को कोई विशेष मदद नहीं की है. इन्हीं कारणों से राज्य के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और आज राज्य की प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 68 प्रतिशत कम है. अत: सव र्प्रथम वित्त आयोग को एक वास्तविक समयसीमा के अंतर्गत प्रतिव्यक्ति आय की बढ़ती हुई विषमता को दूर करने के लिए ठोस सिफारिश करने की आवश्यकता है.
मैंने लगातार इस मुद्दे को उठाया है कि 14वें वित्त आयोग की अनुशंसा के तहत राज्यों के अंतरण को जो 32 प्रतिशत से बढ़ा कर 42 प्रतिशत किया गया है, वह मात्र एक संरचनात्मक परिर्वतन (compositional shift) है. एक ओर कर अंतरणों में वृद्धि के कारण राज्यों की जो हिस्सेदारी बढ़ी है, वह दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय योजनाओं एवं केंद्र प्रायोजित योजनाओं के आवंटन में कटौती के कारण काफी हद तक समायोजित हो गयी. इसके अतिरिक्त राज्यवार जो अंतरण पद्धति निर्धारित हुई, उसके कारण बिहार का हिस्सा 10.917 प्रतिशत (13वें वित्त आयोग) से घट कर 9.665 प्रतिशत (14वें वित्त आयोग) हो गया. वस्तुत: पिछले चार वित्त आयोगों की अनुशंसाओं में कुल देय कर राजस्व में बिहार की हिस्सेदारी लगातार कम हुई है. 11वें वित्त आयोग में 11.589 प्रतिशत से घट कर 12वें वित्त आयोग में 11.028 प्रतिशत, 13वें वित्त आयोग में 10.917 प्रतिशत और 14वें वित्त आयोग में 9.665 प्रतिशत हो गयी.
14वें वित्त आयोग ने जहां कुल क्षेत्रफल और कुल वनाच्छादित क्षेत्रफल को ज्यादा महत्व दिया, वहीं जनसंख्या घनत्व एवं प्राकृतिक संसाधनों की अनुपलब्धता के साथ-साथ बिहार जैसे थलरुद्ध राज्यों की विशिष्ट समस्याओं की अनदेखी की. यहां तक कि हरित आवरण को बढ़ाने हेतु राज्य सरकार के प्रयासों को प्रोत्साहित करने की जगह उनकी उपेक्षा की गयी. कृषि रोड मैप के तहत हरियाली मिशन के अंतर्गत राज्य में हरित आवरण 9.79 प्रतिशत से बढ़ कर लगभग 15 प्रतिशत हो गया है. अब हमारा लक्ष्य इसे बढ़ा कर वर्ष 2022 तक 17 प्रतिशत करने का है, जो कि बिहार जैसे अधिक जनसंख्या घनत्ववाले राज्य के लिए अधिकतम संभव है. अत: हरित आवरण को बढ़ाने के लिए राज्यों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को प्रोत्साहित करने हेतु विशिष्ट अनुसंशा करना राज्य हित एवं राष्ट्रीय हित में होगा.
इसके अतिरिक्त नेपाल एवं अन्य राज्यों से उद्भूत होनेवाली नदियों से प्रत्येक वर्ष आनेवाली बाढ़ के कारण भौतिक एवं सामाजिक आधारभूत संरचना में हुए नुकसान की भरपाई हेतु बिहार को अतिरिक्त वित्तीय भार उठाना पड़ता है. ऐसे कारणों, जो बिहार के नियंत्रण में नहीं हैं, की वजह से राज्य को प्रत्येक वर्ष बाढ़ का दंश झेलना पड़ता है. साथ ही बाढ़-राहत, पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण कार्यों पर काफी राशि व्यय होती है. गंगा बेसिन के उपरी राज्यों में निर्मित बांधों, बराजों एवं अन्य संरचनाओं के चलते नदी के प्रवाह में कमी आयी है. इसके अतिरिक्त पहाड़ी क्षेत्र में वनों के क्षरण एवं खनन गतिविधियों ने नदी के
स्वाभाविक प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जिसके कारण मैदानी क्षेत्रें में गाद अधिक मात्र में पहुंच रही है. इससे बिहार में बाढ़ की तीव्रता एवं व्यापकता में वृद्धि हुई है. सोन नद के मामले में भी पड़ोसी राज्यों (मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश) के द्वारा कभी भी जल बंटवारे से संबंधित बाणसागर समझौते (1973) का अनुपालन नहीं किया गया है, लेकिन जब भी सोन नद बेसिन में अधिक वर्षा होती है, तो बाणसागर एवं रिहंद बांध से अचानक अत्यधिक पानी छोड़ दिया जाता है. इससे बिहार में बाढ़ आ जाती है और नुकसान होता है. अत: राज्यों की हिस्सेदारी से संबंधित मानदंडों के निर्धारण के दौरान इन बाह्य कारणों का समावेशन किया जाना चाहिए.
जहां तक जनसंख्या के मापदंड की बात है, 14वें वित्त आयोग द्वारा जनसंख्या को अधिक महत्व देते हुए 1971 की जनगणना को 17.5 प्रतिशत एवं 2011 की जनगणना को 10 प्रतिशत हिस्सा दिया गया. यह हमारा दृढ़ विचार है कि जनसांख्यिकीय बदलाव को समझने तथा नागरिकों की आवश्यकताओं के संख्यात्मक आकलन के लिए जनसंख्या के अद्यतन आंकड़ों को महत्व देना आवश्यक है. अंतत: सभी नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा किया जाना है. अन्यथा देश में विकास के कुछ द्वीप ही सृजित होंगे. इसलिए 15वें वित्त आयोग के विचारणीय बिंदुओं में 2011 की जनसंख्या के आकड़ों को ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज वितरण का आधार बनाया जाना एक स्वागत योग्य कदम है, जो लंबे समय से अपेक्षित था. कुछ राज्यों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है, लेकिन उनका विरोध अतार्किक है. क्योंकि, 15वें वित्त आयोग के विचारणीय बिंदुओं में राज्यों द्वारा जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयासों को मान्यता देते हुए उल्लेख किया गया है कि ”जनसंख्या वृद्धि की प्रतिस्थापन दर की दिशा में किये गये प्रयास और प्रगति” को सिफारिशों में महत्व दिया जा सकेगा. ये प्रावधान जनसंख्या के अद्यतन आंकड़ों पर आधारित नागरिकों की आवश्यकताओं तथा राज्यों द्वारा जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयासों को संतुलित कर सकेंगे.
13वें वित्त आयोग ने राज्य की विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए सहायता अनुदान की सिफारिश की थी, जिस पर 15वें वित्त आयोग को भी विचार करना चाहिए. यह पिछड़े राज्यों एवं विकसित राज्यों के बीच की खाई को पाटने में मदद करेगा. 14वें वित्त आयोग ने अपनी सिफारिशों में यह सुझाव दिया था कि यदि सूत्र आधारित अंतरण राज्य विशेष की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति न कर सकें, तो उसे निष्पक्ष ढंग से एवं सुनिश्चित रूप से विशेष सहायता अनुदान से पूरा किया जाना चाहिए. इस सुझाव को लागू नहीं किया गया है. अत: 15वें वित्त आयोग द्वारा बिहार जैसे पिछड़े राज्यों की विशेष एवं विशिष्ट समस्याओं को देखा जाना चाहिए.
आजादी के पहले बिहार में लागू प्रतिगामी स्थायी बंदोबस्ती व्यवस्था ने राज्य में सामाजिक एवं संरचनात्मक विकास को बाधित किया तथा आजादी के बाद मालवाहक भाड़ा सामान्यीकरण की नीति के कारण तत्कालीन बिहार को कच्चे माल की प्रचुर उपलब्धता एवं लागत-लाभ का फायदा नहीं मिल सका. इस अवधि में जबकि दक्षिण एवं पश्चिम भारत के तटीय राज्यों में आद्यौगिक विकास हुआ, बिहार पिछड़ेपन
का शिकार रहा. बिहार के बंटवारे के बाद प्रमुख उद्योगों और खदानों के झारखंड में चले जाने के कारण यह समस्या और भी गंभीर हुई. यद्यपि हाल के वर्षों में बिहार ने तेजी से विकास किया पर अब भी भौतिक एवं सामाजिक संरचनाओं के मापदंड में बिहार अत्यंत ही पिछड़ा है. बिहार पुनर्गठन अधिनियम 2000 में यह प्रावधान है कि विभाजन के फलस्वरूप बिहार को होने वाली वित्तीय कठिनाइयों के संदर्भ में एक विशेष कोषांग उपाध्यक्ष, योजना आयोग के सीधे नियंत्रण में गठित होगा और वह बिहार की आवश्यकताओं के अनुरूप अनुशंसाएं करेगा. इस वैधिक प्रावधान के तहत राज्य की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ ही सहायता मिली है. अब योजना आयोग के स्थान पर नीति आयोग का गठन हुआ है. अत: अब नीति आयोग पर ही इस वैधिक प्रावधान को इसकी मूल अवधारणा के अनुरूप अक्षरश: लागू करने की जिम्मेवारी है. यदि अंतर-क्षेत्रीय एवं अंतर्राज्यीय विकास के स्तर में भिन्नता से संबंधित आंकड़ों की समीक्षा की जाये, तो पाया जायेगा कि कई राज्य विकास के विभिन्न मापदंडों यथा– प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, सांस्थिक वित्त एवं मानव विकास के सूचकांकों, पर राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है. तर्कसंगत आर्थिक रणनीति वही होगी, जो ऐसे निवेश और अंतरण पद्धति को प्रोत्साहित करे, जिससे पिछड़े राज्यों को एक निर्धारित समय सीमा में विकास के राष्ट्रीय औसत तक पहुंचने में मदद मिले. हमारी विशेष राज्य के दर्जे की मांग इसी अवधारणा पर आधारित है. हमने लगातार केंद्र सरकार से बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग की है. बिहार को यदि विशेष राज्य का दर्जा मिलता है, तो केंद्र प्रायोजित योजनाओं में राज्यांश घटेगा, जिससे राज्य को अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध होंगे, बाह्य संसाधनों तक पहुंच बढ़ेगी. निजी निवेश को कर छूट एवं रियायतों के कारण प्रोत्साहन मिलेगा. रोजगार के अवसर पैदा होंगे और जीवन स्तर में सुधार होगा.
बिहार एक थलरुद्ध राज्य है. ऐसे ‘थलरूद्ध एवं अत्यधिक पिछड़े राज्य’ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विशेष एवं विभेदित व्यवहार के हकदार है. इस संदर्भ में 15वें वित्त आयोग को बिहार जैसे पिछड़े राज्य को राष्ट्रीय स्तर तक लाने के लिए संसाधनों की कमी को चिह्नित कर विशेष सहायता देने की आवश्यकता है.