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भीड़ जुटाने के लिए अटल जी का सिर्फ नाम ही काफी था

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि ‘ये फिल्मी अभिनेता सभा मंच की गरिमा को नष्ट कर देते हैं.’ नब्बे के दशक बात है. पटना के गांधी मैदान में भाजपा की जन सभा थी. जाहिर है कि मुख्य वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी थे. भाजपा से जुड़े एक फिल्म अभिनेता […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि ‘ये फिल्मी अभिनेता सभा मंच की गरिमा को नष्ट कर देते हैं.’ नब्बे के दशक बात है. पटना के गांधी मैदान में भाजपा की जन सभा थी. जाहिर है कि मुख्य वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी थे. भाजपा से जुड़े एक फिल्म अभिनेता मंच पर पहुंचे. उनसे पहले अटल जी मंच पर बैठ चुके थे. अटल जी की उपस्थिति की परवाह किये बिना अभिनेता मंच के अगले हिस्से की खाली जगह में चहल कदमी करने लगे. मंच के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंच कर हाथ हिला-हिला कर उपस्थित भीड़ से मुखातिब होते रहे.
इस क्रम में मंच का अनुशासन बिगड़ गया. शालीन अटल बिहारी जी चुपचाप यह दृश्य देखते रहे. कुछ नहीं बोले. पर उन्हें यह अच्छा नहीं लगा. सभा की समाप्ति के बाद अटल जी ने राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री लाल मुनी चौबे से सिर्फ इतना ही कहा कि ‘ये फिल्मी अभिनेता मंच की गरिमा को नष्ट कर देते हैं.’ दरअसल, कहीं किसी सभा में भीड़ जुटाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी जी को किसी फिल्मी अभिनेता की जरूरत नहीं होती थी. जो लोग उनकी विचारधारा से सहमत न भी थे, उन में से भी अनेक लोग बिना बुलाये अटल जी को सुनने सभा स्थल पर पहुंच जाते थे.
अटल, आमलेट और आंदोलनकारी : बात 1974 की है. उस साल 4 नवंबर को जय प्रकाश नारायण पर पटना में लाठी चली थी. सीआरपीएफ की उस लाठी को रोकने के क्रम में नानाजी देशमुख की बांह टूट गयी थी. नानाजी के अलावा भी उस दिन कई अन्य जेपी आंदोलनकारी भी घायल होकर पीएमसीएच पहुंचे थे. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी नाना जी को देखने दिल्ली से पटना आये. मैं भी एक पत्रिका के संवाददाता के रूप में लगभग रोज ही राजेंद्र सर्जिकल वार्ड में जाया करता था.
उस दिन अटल जी अस्पताल के किचेन में चले गये. वे लगे आमलेट बनाने. नाना जी के साथ मेरे अलावा कुछ आंदोलनकारी भी बैठे थे. मना करने के बावजूद अटल जी ने बारी-बारी से सबके लिए आमलेट खुद अपने हाथों से बनाया. उतने बड़े नेता के हाथ से बना आमलेट खाकर हमलोग गदगद थे. आमलेट प्रकरण ही नहीं, बल्कि अटल जी का पूरा व्यक्तित्व, हाव भाव और बातचीत का शालीन लहजा लोगों को गदगद कर देता था.
ऐसे बन सकता है पटना रहने लायक : ताजा आकलन के अनुसार बसने योग्य शहरों में पटना का इस देश में 109वां स्थान है. कुछ अन्य समस्याओं के साथ-साथ पटना में वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या बनी हुई है.
इसके कई कारण हैं. मुख्य पटना के छोटे क्षेत्रफल में आबादी का घनत्व बहुत अधिक है. कचहरी, अस्पताल, विश्व विद्यालय सभा स्थल और कई छोटे-बड़े संस्थान आसपास ही हैं. इससे लोगों की आवाजाही बढ़ी रहती है. बाहर से भी कामकाज के लिए हर रोज लोग पटना आते हैं. फिर उसी दिन लौट जाते हैं. सड़कों के दोनों किनारों पर भारी अतिक्रमण के कारण अक्सर जाम का नजारा रहता है.
धुआं उड़ाते वाहन देर तक सड़कों पर खड़े रहने को मजबूर रहते हैं. हाल में शासन ने बड़ी-बड़ी बसें चलवानी शुरू की हैं. इससे देर-सवेर छोटे-छोटे वाहनों की संख्या कम होंगी, जो वायु प्रदूषण के बड़े स्त्रोत हैं. पर इसके साथ ही कुछ अन्य ठोस उपाय करने होंगे. शहर के बीच के उद्योगों को बाहर भिजवाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना होगा. जिन पुराने वाहनों खास कर आॅटो रिक्शे से मोटे-मोटे काले धुएं निकलते रहते हैं, उन्हें सड़कों से निकाल बाहर करना होगा.
जो ड्राइवर किरोसिन से आॅटो रिक्शा चलाता है, उसे सीधे जेल भेजने का कानूनी प्रावधान होना चाहिए. इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि वायु और जल प्रदूषण के कारण 2015 में भारत में 25 लाख लोगों की जानें गयी थीं. बिहार में एक-तिहाई मृत्यु प्रदूषण के कारण ही होती है.
राष्ट्रीय औसत लगभग एक चौथाई है. गृह निर्माण आदि के कारण उड़ते धूल कण को नियंत्रित करने का बिल्डर्स प्रबंध करें. सड़क बनाने के लिए कम से कम मझोले साइज के वृक्षों की कटाई न हो. क्योंकि उन्हें सुरक्षित ढंग से स्थानांतरित करने के लिए मशीन अब उपलब्ध हैं. खुले में कचरा न जलाने दिया जाये. इसके साथ ही कुछ अन्य उपाय भी करने होंगे. उनसे शायद पटना रहने लायक नगर बन सके.
भूली-बिसरी याद : सन 1971 में निर्धारित समय से एक साल पहले ही लोकसभा चुनाव करा देने के कारण ही विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे हैं. 1952 से 1967 तक चुनाव एक ही साथ हुए थे. सन 1971 में हुए मध्यावधि चुनाव पर कुछ विदेशी अखबारों की टिप्पणियां पढ़ना रुचिकर होगा. दरअसल, उस चुनाव को लेकर पूरी दुनिया में भारी उत्सुकता थी. विदेशी मीडिया में इस बात को लेकर अनुमान लगाये जा रहे थे कि पता नहीं भारत इस चुनाव के बाद किधर जायेगा. उन दिनों दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के दो ध्रुवों के बीच बंटी हुई थी.
शीत युद्ध का दौर था. ब्रितानी अखबार ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने तब लिखा कि ‘हिम्मत से किंतु शांतिपूर्वक इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर दी. भारत में यह पहली बार हुआ है. सत्ताच्युत होने का खतरा न होते हुए भी उनकी सरकार को बहुमत प्राप्त नहीं था. इस स्थिति में वह असंतुष्ट थीं. लगातार चौथी बार अच्छी वर्षा होने के बावजूद कुछ आर्थिक विवशताएं भी थीं. अब तक के तमाम चुनावों के मुद्दे बहुत ही अस्पष्ट रहे और चुनाव घोषणा पत्रों का उद्देश्य सबको खुश करना रहा है.
इस बार स्थिति भिन्न होगी. समान मुद्दों की तह में कुछ ठोस मुद्दे होंगे जो कुछ दलों को वामपंथी और कुछ को दक्षिणपंथी सिद्ध करेंगे.’ अमेरिकी अखबार ‘क्रिश्चेन सायंस माॅनीटर’ ने लिखा कि ‘गांधी एक साल से अधिक अर्सा पूर्व कांग्रेस विभाजन के बाद से अल्पमत की सरकार का नेतृत्व कर रही हैं.
संसद में कोई भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराने से पहले उन्हें परंपरावादी मास्को समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी और क्षेत्रीय राजनीतिक गुटों का समर्थन प्राप्त करना पड़ता था. इसी असंतोषकारी स्थिति से तंग आकर प्रधानमंत्री कई हफ्तों तक सोचती रहीं कि चुनाव कराया जाये या नहीं. सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से कि पूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को खत्म करने का उनका निर्णय गैर संवैधानिक है, श्रीमती गांधी की सोच खत्म हो गयी.’ ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा कि ‘वर्तमान भारतीय राजनीति की एक विडंबना यह है कि नयी दिल्ली द्वारा बहु प्रचाारित ‘हरित क्रांति’ वास्तव में उन ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष फैला रही है, जहां इसने सामाजिक और आर्थिक विषमता को बढ़ावा दिया है. श्रीमती गांधी की सधी हुई राजनीतिक चालें अब तक तो प्रतिपक्ष को डगमगाती रही है.
लेकिन उनके विरोध में संगठित होने का प्रतिपक्ष का हौसला भी बढ़ता रहा है. यदि श्रीमती गांधी का पासा सही गिरा तो भारत अधिक परिपुष्ट राजनीतिक स्थायित्व और संयत वामपंथी सत्ता के अधीन अधिक गतिशील विकास के नये युग में प्रवेश करेगा. अगर नयी कांग्रेस आगामी चुनाव में यथेष्ट बहुमत प्राप्त न कर सकी तो भारतीय राजनीति की वर्तमान विभाजक प्रवृतियां इस उप महाद्वीप के लिए भारी खतरा उत्पन्न करेगी.’
और अंत में : एक महत्वपूर्ण व्यक्ति एक बड़े दल के शीर्ष नेता के पास गये. उन्होंने कहा कि मैं जन सेवा के लिए आपकी पार्टी ज्वाइन करना चाहता हूं. शीर्ष नेता ने कहा कि वह तो ठीक है, पर यह तो बताइए कि आप किस क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहेंगे? उस व्यक्ति ने एक खास क्षेत्र का नाम बताया. नेता ने कहा कि उस क्षेत्र का उम्मीदवार पहले से तय है.
आप दूसरे दल में जाकर सेवा कीजिए. वे चले गये. पास बैठे व्यक्ति ने कहा कि आपने इसको क्यों बिदा कर दिया? पैसे वाला है. आपके काम का साबित होता. नेता ने कहा कि यदि अभी बात साफ नहीं हो जाती तो चुनाव के समय यह पार्टी छोड़ता. मेरे और हमारे दल के खिलाफ कुछ गंदी बातें भी बोलता. उससे हमें जो नुकसान होता, उससे तो हम बच गये.

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