पटना : सशक्त पहचान वाले कई दलों का समय के साथ खत्म हो गया वजूद
पटना : लोकतांत्रिक चुनाव में अपने क्षेत्रों में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाले नेताओं को अपनी पार्टी का वजूद समाप्त कर समय-समय पर बड़े दलों में शरण लेनी पड़ी. बीते वर्षों में चुनाव के दौरान क्षेत्र के हिसाब किसी ने कोसी में तो किसी ने भोजपुर में और किसी ने चंपारण में दल के प्रत्याशियों […]
पटना : लोकतांत्रिक चुनाव में अपने क्षेत्रों में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाले नेताओं को अपनी पार्टी का वजूद समाप्त कर समय-समय पर बड़े दलों में शरण लेनी पड़ी. बीते वर्षों में चुनाव के दौरान क्षेत्र के हिसाब किसी ने कोसी में तो किसी ने भोजपुर में और किसी ने चंपारण में दल के प्रत्याशियों को उतारा. कुछ को संसदीय राजनीति में शामिल होने का मौका मिला, तो किसी को सिर्फ पार्टियों के नेता बनने पर ही संतोष करना पड़ा.
वर्तमान में जीतन राम मांझी की पार्टी हम, केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी (लो) के नेता पूरे दमखम से चुनाव राजनीति में सक्रिय हैं.
एक समय था जब पूरे बिहार में आनंद मोहन की पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी (बीपीपा) की धूम थी. वह दौर बिहार में लालू प्रसाद की राजनीतिक उभार का चरम दौर थे. उस समय आनंद मोहन, लालू विरोधी ताकतों को जोड़कर बिहार में एक नयी राजनीति गढ़ने में जुटे थे. बीपीपा सुप्रीमो आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने तब की वैशाली की कद्दावर नेता किशोरी सिन्हा को 1994 में हुए वैशाली लोकसभा चुनाव में शिकस्त दी थीं.
आनंद मोहन को बाढ़ विधानसभा से चुनाव जीतने का मौका मिला. आनंद मोहन को एक मामले में जेल जाने के बाद पार्टी के एक-एक नेता उनका साथ छोड़कर चले गये. स्थिति यहां तक आयी कि उनकी पत्नी लवली आनंद को लोजपा में, फिर जदयू में उसके बाद कांग्रेस में जाकर शिवहर लोकसभा चुनाव लड़ना पड़ा. फिलहाल वह हम से ही 2015 में शिवहर से विधानसभा चुनाव लड़ीं.
इसी तरह से चंपारण विकास पार्टी के नेता दिलीप वर्मा ने पूर्वी और पश्चिमी चंपारण की लोकसभा और विधानसभा क्षेत्र में चुनावी की तैयारी की. इस पार्टी से वर्मा 1990 में चुनाव जीते थे. उन्होंने 18 विधानसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार भी उतारे थे. इसी तरह जदयू के विधायक ददन पहलवान की कहानी है.
2004 में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद से असंतुष्ट होकर वीर लोरिक प्रतिमा के नाम पर यादवों को गोलबंद करने की उन्होंने कोशिश की. नवंबर 2005 में वह अखिल जन विकास पार्टी की टिकट पर चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे. इसके बाद उनकी यात्रा विभिन्न दलों में जारी रही. वे 2014 में बहुजन समाज पार्टी से बक्सर की लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरे पर सफलता नहीं मिली. इसके बाद उन्होंने 2015 में जदयू में शामिल होकर विधानसभा के सदस्य बने.
कई नेताओं ने छोड़ िदया दामन
हम के गठन होने के थोड़े समय बाद ही इसके कद्दावर नेता नरेंद्र सिंह ने पार्टी का
दामन छोड़ दिया. वहीं, रालोसपा से लोकसभा चुनाव जीतकर तीन सांसदों में एक अरुण कुमार खफा होकर अलग गुट बना चुके हैं. रही बात जापलो की तो इस दल में पूर्व मंत्री श्रीभगवान सिंह कुशवाहा दल छोड़कर उपेंद्र कुशवाहा के साथ चले गये हैं.बिहार में जदयू, राजद और लोजपा को छोड़कर कोई भी दल लंबी राजनीति में अपना वजूद नहीं बचा सका.
इस तरह की पार्टियों के नेता अपनी ताकत दिखाने के लिए नये दलों का गठन करते हैं. यह जताने की कोशिश करते है कि बड़े दल उनको तरजीह दें. उनकी सार्थकता को समझा जाये. समर्थकों को भी सीटों का लाभ मिले. छोटे दलों की स्थिति उसी नाले की तरह होती है, जो अंत में नदी में मिलने की कोशिश करते हैं.
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार