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वेतन जरूर बढ़े, पर बिहार की आय बढ़ाने में भी मदद करें विधायक

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक बिहार मंत्रिमंडल ने विधायकों के लिए वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाओं में वृद्धि के प्रस्ताव को मंजूरी दी है. पूर्व विधायकों की पेंशन राशि भी बढ़ेगी. पर, साथ-साथ यह उम्मीद की जाती है कि विधायकगण राज्य सरकार की आय बढ़ाने में भी तो अब कुछ अधिक मदद करें! टिकाऊ संरचना के […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
बिहार मंत्रिमंडल ने विधायकों के लिए वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाओं में वृद्धि के प्रस्ताव को मंजूरी दी है. पूर्व विधायकों की पेंशन राशि भी बढ़ेगी. पर, साथ-साथ यह उम्मीद की जाती है कि विधायकगण राज्य सरकार की आय बढ़ाने में भी तो अब कुछ अधिक मदद करें!
टिकाऊ संरचना के निर्माण के मामले में भी वे शासन को अपनी बहुमूल्य सलाह दें. जरूरत पड़ने पर उस काम में व्यावहारिक सहयोग भी दें. यदि ऐसा हुआ तो इनकी वेतन वृद्धि पर समाज के अन्य हलकों में विरोध के स्वर नहीं उठेंगे. आय बढ़ाते जाइए. साथ ही अपने लिए सुविधाएं भी लेते जाइए. यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि विधायकगण यह शुभ कार्य नहीं करते. कुछ जनसेवी विधायक तो करते ही रहते हैं.
पर समय के साथ कुछ और करने की जरूरत महसूस की जाती है. इस गरीब राज्य में इस बात की अधिक जरूरत है कि राजस्व की चोरी रोकी जाये. साथ ही विकास और कल्याण के लिए आवंटित पैसों में से ‘लीकेज’ कम से कम हो. यदि विधायक इस मामले में सतर्क रहें तो कोई माई का लाल उन पैसों का बाल बांका नहीं कर सकता. विधायक अपने क्षेत्र के बहुत प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं. वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों को आसानी से गोलबंद कर सकते हैं.
कई बार राज्य सरकार यह शिकायत करती है कि कई बड़े सरकारी अफसर भ्रष्टाचार पर काबू पाने में राज्य सरकार की मदद नहीं करते. विधायकगण इस मामले में सतर्क रहें तो सरकारी अफसर भी इस काम में सहयोगी होने को मजबूर हो सकते हैं. साठ-सत्तर के दशकों में प्रतिपक्ष के कई विधायकगण सरकारी धन की लूट के खिलाफ यदाकदा आंदोलन रत हो जाते हैं. अब तो ऐसे मुद्दों पर कम ही जन आंदोलन होते हैं.
वेतन वृद्धि के पक्ष में थे आंबेडकर : डाॅ बीआर आंबेडकर चाहते थे कि इस देश के मंत्रियों को पर्याप्त वेतन मिले. तभी प्रतिभाएं इस पद के लिए सामने आयेंगी.
उन्होंने बम्बई विधानसभा में सन 1937 में अपने भाषण में यह बात कही थी. तब वे बम्बई लेजिस्लेटीव एसेम्बली के सदस्य थे. आंबेडकर जब मंत्रियों की बात करते थे तो यह मानकर चला जाये कि उनका आशय विधायकों से भी था.
हालांकि, जनप्रतिनिधियों के वेतन के सवाल पर हमेशा ही इस देश में मतभेद रहा है. इस विषय में एक पक्ष यह कहता है कि आम लोगों की औसत आय के अनुपात में ही जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते तय होने चाहिए. दूसरा पक्ष यह कहता है कि काम और पद की जरूरतों के अनुसार वेतन तय होने चाहिए. नब्बे के दशक में एके राय ने सांसदों-विधायकों के लिए धुआंधार वेतन-भत्ते में बढ़ोतरी की प्रवृत्ति की तीखी आलोचना की थी.
धनबाद से सांसद रहे मार्क्सवादी मजदूर नेता एके राय ने लिखा था कि ‘जब देश आजाद हुआ था, उस समय औसत आय के मामले में बिहार को देश में पांचवां स्थान प्राप्त था. अभी बिहार इस मामले में देश में 26वें स्थान पर है. उस समय देश के अन्य राज्यों की तरह ही यहां के विधायकों को भी सीमित सुविधाएं प्राप्त थीं.
इसके बाद जैसे -जैसे बिहार की आम जनता की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गयी, वैसे-वैसे यहां केे विधायकों की स्थिति और बेहतर होती गयी. इस माहौल में विधायकों के लिए वेतन बढ़ाना जनता के घाव पर नमक छिड़कने जैसा है.’ डाॅ आंबेडकर के भाषण और एके राय के लेख से अलग एक बीच का रास्ता भी है. विधायक सरकार की आय बढ़ाने में मदद करें. जहां-तहां जारी राजस्व चोरी को रोकने में मदद करके भी वे अपनी भूमिका निभा सकते हैं.
राज्य की आय बढ़े तो साथ-साथ विधायकों व अन्य लोगों के भी वेतन और सुविधाओं में भी वृद्धि हो. सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी सरकार ने यह घोषणा की थी कि कालेधन का पता बताने वालों को इनाम दिया जायेगा. चंद्रशेखर ने पता बता दिया था. चंद्रशेखर जी को लाखों रुपये इनाम के रूप में मिले थे. निजी कंपनियां आखिर क्या करती हैं? अपनी आय के अनुपात में ही अपने कर्मचारियों के वेतन-भत्ते तय करती हैं. एक सरकार ही है जो अपनी आय का ध्यान रखे बिना कई काम करती रहती है. उनमें विधायकों-सांसदों की वेतन वृद्धि भी शामिल है.
तटरक्षक दल की मजबूती जरूरी : सन 1993 में आतंकवादियों ने भारी मात्रा में विस्फोटकों का तस्करी के जरिये आयात किया और मुम्बई को दहला दिया. उसी समय हमारे तटरक्षक दल की कमजोरी सामने आ गयी थी. यहां तक कि पुलिस और कस्टम अफसरों की मिलीभगत भी. मुम्बई विस्फोट कांड मुुकदमे में सजा पाने वालों में पुलिस उप निरीक्षक वीके पाटील और एडीशनल कस्टम कमिश्नर एसएन थापा भी थे.
इनकी आतंकियों से सांठगांठ थी. 2008 में ताज होटल तथा अन्य स्थानों पर हमला करने वाले भी तटरक्षक दल की कमजोरी का लाभ उठा कर मुम्बई में घुस आये थे. 2008 के बाद ही केंद्र सरकार ने तटरक्षक दल को सुदृढ़ करने व सूचना तंत्र विकसित करने के अपने निर्णय की घोषणा की थी. पर वर्षों तक कुछ नहीं हुआ. बहाना पैसे की कमी. इस मामले में मौजूदा मोदी सरकार की भी अपने कार्यकाल के अंतिम साल में नींद खुली है.
योजना बनी है कि करीब दो लाख करोड़ रुपये की लागत से अगले पंद्रह साल में तटरक्षक दल का आधुनीकीकरण करना है. एक सौ विमान और 190 समुद्री जहाज तटरक्षक दल को मिलेंगे. पर सवाल है कि 1993 से ही सरकारें क्यों सोयी हुई थीं? दरअसल, खतरों से घिरे इस देश की सुरक्षा को लेकर हमारी सरकारें जितनी लापारवाह रही हैं, उतना शायद ही कोई दूसरा देश रहा हो.
सुरक्षा, स्वास्थ्य व शिक्षा : गरीब देश में आम गरीबों के लिए स्वास्थ्य व शिक्षा का प्रबंध सरकार ही कर सकती है. आंतरिक व बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी भी सरकार की ही है. पर हमारी सरकारें अक्सर आर्थिक संसाधनों की कमी का रोना रोती रहती है. दूसरी ओर टैक्स वसूली में भारी कोताही होती है.
क्योंकि सरकारी तंत्र भ्रष्ट है. भ्रष्टों को सबक देने लायक सजा सरकार न तो दे पाती है और न ही अदालतों से दिला पाती है. हम छोटे-बड़े बाजारों-नगरों में रोज ही भारी टैक्स चोरी होते देखते हैं. पर वह चोरी सिर्फ संंबंधित अफसरों को नजर नहीं आती.
सरपंच संस्था का मजबूतीकरण : ग्राम पंचायतों की सरपंच संस्था को मजबूत कर दिया जाये तो गांवों के कई छोटे-मोटे झगड़ों का निबटारा संभव है.
सरपंचों को कुछ सिविल और आपराधिक मामलों की सुनवाई के अधिकार भी दिये गये हैं. कितने सरपंच उन शक्तियों का इस्तेमाल कर पा रहे हैं? उन शक्तियों के इस्तेमाल के लिए जो संसाधन चाहिए, उनमें से कितने उनके पास उपलब्ध हैं? उनके यहां कितनी शिकायतें आ रही हैं? निबटारे की गति क्या है? इन सब मामलों की समीक्षा करके उनकी वाजिब जरूरतों की पूर्ति से खुद सरकार के दूसरे अंगों को ही लाभ होगा.
पुलिस पर दबाव कम होगा. छोटे-मोटे झगड़े विकराल रूप लेने से बच जायेंगे. विकराल रूप लेने पर अस्पतालों और कचहरियों के काम भी बढ़ जाते हैं. सरपंच संस्था के और भी मजबूतीकरण के लिए मौजूदा पंचायत कानून में कुछ संशोधन की जरूरत हो तो वह किया जाना उपयोगी होगा.
और अंत में : कौन नहीं जानता कि कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए पाकिस्तान दशकों से भारत के खिलाफ अघोषित युद्ध लड़ रहा है. पाक इस उद्देश्य से कश्मीर तथा इस देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकी भेजता रहता है.
उन आतंकियों को मदद करने वाले लोग इस देश में भी मौजूद हैं. उनमें कुछ पत्थरबाज हैं तो कुछ बयानबाज. पर, जब भारतीय सेना उन हमलावरों पर कार्रवाई करती है तो हमारे ही कुछ लोग मानवाधिकार का सवाल उठा देते हैं. हर बार सेना को सफाई देनी पड़ती है. क्या किसी युद्ध में चाहे वह घोषित हो या अघोषित, मानवाधिकार का सवाल उठाना उचित है?

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