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उत्तर भारतीयों के बारे में अपने तथ्य दुरुस्त कर लें ठाकरे साहब!

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक मनसे के नेता राज ठाकरे ने कहा है कि उत्तर भारत से मुम्बई आने वाली ट्रेनें तो भर कर आती हैं, पर लौटती ट्रेनें खाली रहती हैं. उनका तर्क है कि यदि महाराष्ट्र बाहरी लोगों से ही भर जायेगा तो स्थानीय लोगों का गुजर-बसर कैसे चलेगा? ऊपरी तौर पर यह बात […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 7, 2018 5:45 AM
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
मनसे के नेता राज ठाकरे ने कहा है कि उत्तर भारत से मुम्बई आने वाली ट्रेनें तो भर कर आती हैं, पर लौटती ट्रेनें खाली रहती हैं. उनका तर्क है कि यदि महाराष्ट्र बाहरी लोगों से ही भर जायेगा तो स्थानीय लोगों का गुजर-बसर कैसे चलेगा? ऊपरी तौर पर यह बात सही लगती है.
पर राज ठाकरे की यह बात सही नहीं है कि लौटती ट्रेनें खाली आती हैं. ऐसा कहने से पहले किसी मनसे कार्यकर्ता को मुम्बई रेलवे स्टेशन पर भेज कर दिखवा लेना चाहिए था. मेरा भी अनुभव है और अनेक लोग बताते हैं कि मुम्बई से आम दिनों में भी बिहार-उत्तर प्रदेश-ओडिशा लौटने वाले लोगों को रिजर्वेशन मिलने में काफी दिक्कत होती है. यानी भीड़ वैसी ही होती है. जहां तक रोजी-रोटी के लिए बिहार से दूसरे राज्यों में जाने की समस्या का सवाल है, तो वह अब कम हो रही है.
फिर भी समस्या पुरानी है, धीरे-धीरे समाप्त होगी. बिहार के पिछड़ापन का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि आजादी के बाद से ही केंद्र ने सौतेला व्यवहार किया. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है रेल भाड़ा समानीकरण. जब रेल भाड़ा समानीकरण नियम नहीं था तो दक्षिण बिहार में टाटा नगर बसा. देश का 48 प्रतिशत खनिज बिहार में था. अधिकतर कारखाने यहीं खुलते. पर आजादी के बाद देश के समरूप विकास के नाम पर समानीकरण नियम बनाया गया.
यानी ट्रेन से धनबाद से कोयला पटना पहुंचाने में जितना रेल भाड़ा लगता था, उतना ही भाड़ा मुम्बई पहुंचाने में लगने लगा. नतीजतन खनिज पर आधारित अधिकतर कारखाने बिहार के बाहर लगे. दूसरा टाटा नगर नहीं बसा. दूसरे प्रकार से भी बिहार की क्षतिपूर्ति नहीं की गयी. कृषि के विकास के क्षेत्र में पंजाब की तरह काम हो सकते थे.
नतीजतन बेरोजगारी बढ़ी और मजदूरों का पलायन भी. इस मूल समस्या को हल किये बिना कोई किसी को कहीं जाने से कैसे रोक सकता है? हां, जो उत्तर भारतीय लोग मुम्बई की सड़कों पर अतिक्रमण करके ठेले-खोमचे लगा लेते हैं, उन पर राज ठाकरे का गुस्सा जायज है. हालांकि, यह समस्या बिहार में तथा अन्य जगह भी है. इस समस्या के पीछे नगर निकायों व पुलिस की घूसखोरी अधिक जिम्मेदार है.
मिशेल पुश्तैनी हथियार दलाल : सीबीआई की गिरफ्त में आये क्रिश्चियन मिशेल का पिता डब्ल्यूएम मिशेल भी हथियारों का दलाल था. उसको लेकर सत्तर के दशक में भी एक विवाद हुआ था. तब विमान खरीद की बात चल रही थी. इस देश के तत्कालीन रक्षा मंत्री सपरिवार लंदन गये थे.
आरोप लगा था कि डब्ल्यूएम मिशेल ने उनकी खूब खातिरदारी की. विमान सौदे से पहले मंत्री के परिजन ने वरीय मिशेल के पैसे से लंदन के कपड़े के मशहूर मार्केट हेराॅड में महंगी खरीदारी की.
मिशेल को 800 पाउंड खर्च करना पड़ा. वहां और क्या-क्या हुआ, यह तो पता नहीं चला, पर उस सौदे को लेकर उन दिनों बड़ी नकारात्मक चर्चाएं थीं. कुछ अनजान लोग यह तर्क देते हैं कि हथियारों के सौदे में तो दलाली ली ही जाती है. इसमें अजूबी बात क्या है? पर वे नहीं जानते कि बोफर्स सौदे से पहले ही भारत सरकार ने यह आदेश जारी किया था कि हथियारों के किसी सौदे में कोई दलाली नहीं दी जायेगी.
गवाह सुरक्षा योजना : इस देश में पहली बार केंद्र सरकार ने गवाह सुरक्षा स्कीम बना कर सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दी और अदालत ने उस पर अपनी मुहर भी लगा दी. इससे पहले वर्षों से सुप्रीम कोर्ट इसके लिए सरकार को कहता रहा. पर आशाराम बापू मामले में कई गवाहों की हत्या के बाद सरकार की नींद खुली. यह एक स्वागतयोग्य कदम है. गवाहों के मारे जाने या धमकाए जाने से अनेक गवाह अपना बयान बदल देते हैं.
इस कारण भी इस देश में सजा का प्रतिशत औसत 45 ही है. जबकि, अमेरिका में औसतन करीब 80 प्रतिशत और जापान में 99 प्रतिशत है. अमेरिका में 1971 से 8500 गवाह और उनके 9900 परिजन को सरकार निरंतर सुरक्षा दे रही है. यानी मुकदमे के फैसले आ जाने के बाद भी वहां सुरक्षा जारी रहती है. भारत में बड़े-बड़े माफिया और माफिया से जनप्रतिनिधि बने लोगों के बारे में अक्सर शिकायतें आती रहती हैं कि वे गवाहों की हत्या करवा देते हैं. या अन्य तरह से प्रभावित करके केस कमजोर करवा देते हैं. यदि कम से कम बड़े-बड़े राजनीतिक व गैर राजनीतिक माफियाओं के खिलाफ गवाही के लिए उठ खड़े हिम्मती लोगों को सरकार सुरक्षा देने लगेगी तो कानून -व्यवस्था की स्थिति भी सुधरेगी.
क्योंकि बड़ी हस्तियों को सजा मिलने लगे तो छोटे और मझोले अपराधी भी सहम जायेंगे. जिस तरह मिशेल के पकड़े जाने के बाद विजय माल्या सहम गया है. गवाहों की सुरक्षा पर सरकार का जो खर्च आयेगा, वह व्यर्थ नहीं जायेगा. क्योंकि अपराधियों का खौफ कम होने से सामान्य विकास और उद्योग धंधों में भी तेजी आ सकती है.
धन बल का बढ़ता असर : तेलांगना चुनाव प्रचार के दौरान अब तक नकद 120 करोड़ रुपये जब्त किये गये हैं. वे अवैध पैसे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देश भर में 331 करोड़ रुपये जब्त किये गये थे. उस चुनाव में अविभाजित आंध्र प्रदेश का आंकड़ा 153 करोड़ रुपये था. तेलांगना में 119 विधानसभा क्षेत्र हैं.
तेलांगना के जानकार लोग बताते हैं कि यह 120 करोड़ तो ‘आइसबर्ग का सिरा’ मात्र है. असल में तो इससे काफी अधिक काला धन तेलांगना के चुनाव में लग रहा है. अब भला बताइए कि यह राजनीतिक उम्मीदवारों व दलों के बीच चुनाव है या धन कुबेरों के बीच?
भूली-बिसरी याद : 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का नारा गूंजा था. उस नारे के जनक कोई और नहीं, बल्कि यूसुफ मेहर अली थे. महात्मा गांधी ने उस नारे को अपनाया था. ऐसा नारा गढ़ने के लिए गांधी ने मेहर अली को शाबासी दी थी
.
स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता मेहर अली आठ बार जेल गये थे. मेहर अली ऐसे युवा कार्यकर्ताओं का काॅडर तैयार करना चाहते थे जो जान की परवाह न करते हुए देश के लिए काम करे. वे खुद बंबई के मेयर तब चुने गये थे, जब वे लाहौर जेल में बंद थे. 23 सितंबर 1903 को जन्मे मेहर अली का 1950 में निधन हो गया. नतीजतन काॅडर निर्माण का काम नहीं कर सके. कम ही उम्र में उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी थी.
पूर्व रेल मंत्री मधु दंडवते ने मेहर अली की जीवनी लिखी है. मेहर अली को राजनीतिक क्षेत्र में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. उनके बारे में बम्बई हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज चंद्र शेखर धर्माधिकारी ने लिखा है कि कई बार प्रबुद्ध लोग कहते हैं कि अखिल भारतीय राष्ट्रीय वृत्ति का धर्मनिरपेक्ष नागरिक सिर्फ एक कल्पना है, असलियत नहीं है. पर, युसुफ मेहर अली ऐसे ही नेता थे जिनके लिए देश और राष्ट्र, धर्म से अधिक अहमियत रखते थे. संघर्ष और रचना दोनों क्षेत्रों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी.
मेहर अली के पास कोई आॅटोग्राफ लेने जाता था तो वे लिख देते थे,‘लिव डेंजरसली.’ एक बार गवर्नर ने मेयर मेहर अली को रात के भोजन पर आमंत्रित किया. मेहर अली ने कहा कि डिनर टेबल पर मेरा ड्राइवर भी रहेगा. खाना खायेगा. यह शर्त मंजूर हो तो डिनर का आमंत्रण मुझे स्वीकार है. भला कोई अंग्रेज गवर्नर ऐसी शर्त को कैसे स्वीकार कर सकता था?
और अंत में : सीबीआई के निदेशक रह चुके दिवंगत जोगिन्दर सिंह ने कहा था कि ‘सच्चाई यह है कि कोई भी सरकार, वह चाहे किसी भी दल की हो, स्वतंत्र जांच एजेंसी या ऐसी कोई स्वतंत्र संस्था नहीं चाहती, जो उसके कहे अनुसार चलने को तैयार न हो. सरकार के पास स्वतंत्रता के साथ काम कर रहे किसी भी संगठन को पंगु बना डालने के एक से अधिक रास्ते हैं.’

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