पटना : …समाज की जगह अब राजनीति को तरजीह दे रहे प्रचारक
पटना : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की शाखाएं उसी अंदाज में हैं. पर इन शाखाओं से निकलने वाले प्रचारकों में बदलाव जरूर दिखने लगा है. कई राज्यों और केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद प्रचारकों की दिलचस्पी अब समाज की जगह राजनीति की ओर बढ़ी है. जो लोग राजनीति को प्रभावित […]
पटना : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की शाखाएं उसी अंदाज में हैं. पर इन शाखाओं से निकलने वाले प्रचारकों में बदलाव जरूर दिखने लगा है. कई राज्यों और केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद प्रचारकों की दिलचस्पी अब समाज की जगह राजनीति की ओर बढ़ी है. जो लोग राजनीति को प्रभावित करते थे, वे खुद राजनीति से प्रभावित होने लगे हैं. पार्टी का इन पर विश्वास बढ़ा है. सवाल उठ रहा है कि त्याग और तपस्या के लिए संघ में घर-बार छोड़ कर आने वाले ऐसे लोग राजनीति को कितनी ऊर्जा दे रहे हैं.
मंगलवार को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम में इनकी भूमिका को भी जोड़ कर देखा जा रहा है. छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की रणनीति का प्रभाव दिख रहा है. वनवासी बाहुल्य होने के बाद संघ का असर इस राज्य में नहीं दिख रहा है. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्वयं सेवक संघ के पूरी ताकत झोंकने के बाद सत्ता हाथ से निगल गयी है. सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा को परिणाम की उम्मीद नहीं थी. बिहार में होनेवाले आगामी चुनाव में भी इनकी भूमिका को जोड़ कर देखा जायेगा.
प्रचारकों में दिखने लगा है बदलाव
मध्यप्रदेश के एक संघ के विस्तारक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि दरअसल संघ के प्रचारकों पर राष्ट्र निर्माण, चरित्र निर्माण जैसी जिम्मेदारी है. उनका प्राथमिक कार्य होता था गहन अध्ययन करना. संघ कार्यालय पुस्तकों से भरी रहती थी. घर छोड़ने वाले प्रचारकों के पास दो कुर्ते और दो पायजामे होते थे. एक साइकिल घूमने के लिए होती थी. दोपहर और रात का भोजन स्वयंसेवकों के परिवार में होता था. इससे परिवार वाले संघ की विचारधारा से जुड़ते थे.
अब प्रचारक फाइव स्टार होटलों में नेताओं के साथ भोजन कर रहे हैं. बड़े-बड़े रसूख वाले भी संघ के प्रचारकों के पीछे चलते थे. अब भी लोग परिवार छोड़ कर संघ में आनेवाले नेताओं और लालबत्ती वाले 30-40 लाख की गाड़ियों में नेताओं के साथ सवार होकर चल रहे हैं.
प्रचारकों के रहन-सहन में आमूल बदलाव दिखने लगा है. उनको राजनीति की चमक-दमक वाला ग्लैमर भी आकर्षित करने लगा है. अब राजनीति भी प्रचारकों के इर्द-गिर्द घूमने लगी है. त्याग और तपस्या वाले प्रचारक राजनीति के वाहक दिखने लगे हैं. प्रचारकों की स्थिति पानी में रहने वाली मछली के समान है, जो कब पानी में रह कर पानी पीती है और कब पानी के माध्यम से सांस लेती है, इसे कोई नहीं जानता.
मुख्य बिंदु
-प्रचारकों का गहन अध्ययन नहीं होने से बौद्धिक स्तर कम हो रहा है
-स्वयं सेवकों के घर पर भोजन नहीं कर पांच सितारा होटलों में भोजन कर रहे हैं
-प्रचारकों का विचार राजनैतिक हो गया है. कहते हैं उनको राजनीति से मतलब नहीं. पर बात सिर्फ राजनीति की करते हैं
-अब कागजों पर बैठकें होने लगी है
-शाखाओं के कमजोर होने से समाज से जुड़ाव कम हुआ है.
-उद्देश्य में हुआ भटकाव. पहले संघ से जुड़ना, फिर राजनीति में प्रवेश और अंत में शादी कर गृहस्थ जीवन में लौटना.
कान मरोड़ा जा सकता है
वरिष्ठ पत्रकार सुकांत नागार्जुन का मानना है कि आरएसएस शांति से काम करनेवाली संस्था है. एक-दो राज्यों को परिणाम का असर संघ के करेक्टर पर असर नहीं पड़ेगा. उन्होंने बताया कि इस चुनाव परिणाम से वैसे लोग का जो भाजपा, मोदी सरकार और आरएसएस से जुड़े ताकतवर हैं, उनका कान जरूर मरोड़ा जायेगा
ताकत पहले से बढ़ी
त्याग व तपस्या की प्रतिमूर्ति हैं वर्तमान सर संघ चालक डॉ मोहन भागवतऔर उनके जैसे हजारों लोग. वह पटना में 1996-98 तक क्षेत्र प्रचारक थे. यहीं से उनको अखिल भारतीय दायित्व की जिम्मेदारी मिली.
उस समय वह साइकिल, स्कूटर व बस से यात्राएं करते थे. केएन गोविंदाचार्य पटना में नगर प्रचारक के पद पर रहे. वह भी सामान्य तरीके से रहते हुए सांगठनिक कार्य करते रहे. इन लोगों ने त्याग और तपस्या का प्रतीक बनकर काम किया. इनके सामने राजनीति महत्वपूर्ण नहीं रहती थी. अब तो संघ के प्रचारक राजनीति को प्रभावित करने लगे हैं. पिछले एक दशक में संघ में भी बदलाव दिख रहा है. गुरु दक्षिणा की राशि से प्रचारकों का प्रवास और कार्यालय का खर्च चलता था. प्रचारक कार्यक्रमों के लिए वाहन की दूसरे से जुगत करते थे. अब तो संघ कार्यालयों में बड़ी और महंगी गाड़ियों में सवार होकर लोग आ रहे हैं. स्थिति यह है कि कई संघ कार्यालयों में अपने खुद के वाहन भी खरीद लिये गये हैं. संघ के प्रचारकों की जीवनशैली चाहे जैसी भी हो. वर्तमान में प्रचारकों की सत्ता व राजनीतिक ताकत पहले से अधिक बढ़ी है.
… प्रचारकों का प्रभाव ऐसा होता है कि वह जिनको चाहते हैं उसको चुनावी टिकट मिलता है. इसी प्रभाव का नतीजा है कि राजनीति में जिनको टिकट की आवश्यकता रहती है वह उनके ईर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं.