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परीक्षाओं में कदाचार के खिलाफ पटना हाईकोर्ट फिर करे पहल

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक बिहार में बोर्ड परीक्षा से लेकर विश्वविद्यालय परीक्षा तक कदाचार का बोलबाला है. यहां तक कि मेडिकल व इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी संस्थाएं भी कदाचार से अछूती नहीं है. सिर्फ एक ही अपवाद है, वह है नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी. कहीं और अपवाद हो तो कोई बताएं. जिस तरह ईश्वर सर्वव्यापी हैं, उसी […]

सुरेंद्र किशोर

राजनीतिक विश्लेषक

बिहार में बोर्ड परीक्षा से लेकर विश्वविद्यालय परीक्षा तक कदाचार का बोलबाला है. यहां तक कि मेडिकल व इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी संस्थाएं भी कदाचार से अछूती नहीं है. सिर्फ एक ही अपवाद है, वह है नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी. कहीं और अपवाद हो तो कोई बताएं. जिस तरह ईश्वर सर्वव्यापी हैं, उसी तरह परीक्षाओं में कदाचार भी. पीढ़ियां बर्बाद हो रही हैं.

राज्य सरकार निर्णायक कड़ाई करने से डरती है. बड़े छात्र आंदोलन का खतरा है. पर, अदालती आदेश के बाद स्थिति बदल जाती है जैसे अतिक्रमण हटाओ अभियान में बदली. अब तो बड़े-बड़े अतिक्रमणकारी झुक गये. अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे लोग भी डिग्रियां लेकर निकल रहे हैं, जो न तो सही बिल्डिंग-पुल-पुलिया बना सकते हैं और न ही मरीजों का इलाज कर सकते हैं.

नब्बे दशक में ऐसी ही स्थिति बन गयी थी. पर, पटना हाईकोर्ट के आदेश से अस्थायी रूप से ही सही, चीजें पूरी तरह ठीक हो गयी थीं. उस समय तो जनहित याचिका दायर की गयी थी. अब तो अखबारों में अक्सर भीषण कदाचार की खबरें आती रहती हैं. हाईकोर्ट खुद संज्ञान लेकर 1996 की तरह कार्रवाई कर सकता है.

1996 की शानदार अदालती भूमिका : 1996 में पटना हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीपी बाधवा और न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल के खंडपीठ ने यह आदेश दिया था कि जिलाधिकारी और प्रमंडलीय आयुक्त राज्य में कदाचारमुक्त परीक्षाएं आयोजित कराने के लिए जिम्मेदार होंगे. इस आदेश के तहत सन् 1996 में बिहार में मैट्रिक और इंटर की परीक्षाएं सचमुच कदाचारमुक्त हुईं. जिलाधिकारी और एसपी भी कोई ढिलाई नहीं कर सके, क्योंकि जिला न्यायाधीश भी कदाचारमुक्त परीक्षाओं की निगरानी कर रहे थे. नतीजतन उस कदाचारमुक्त परीक्षा की सर्वत्र तारीफ हुई थी. यहां तक कि तत्कालीन शिक्षा मंत्री जय प्रकाश नारायण यादव ने परीक्षा फल आने के बाद 4 जून 1996 को मीडिया को बताया कि ‘मैट्रिक और इंटर परीक्षाओं के परिणाम से यह जाहिर हो गया है कि बिहार में शिक्षा माफियाओं के पांव उखड़ गये हैं. फर्जी शिक्षण संस्थान अब स्वतः बंद हो जायेंगे.’

दरअसल, तब 1996 की इंटर और मैट्रिक परीक्षाओं के रिजल्ट का प्रतिशत बीस से कम रहा. पर, कई कारणों से दोबारा कदाचार शुरू हो गये. यूं कहें कि शुरू करा दिये गये. अब तो आये दिन राज्य भर से जो खबरें आती रहती हैं, उनके अनुसार कदाचार रोकने की कोशिश करने पर परीक्षा का बहिष्कार हो जाता है और तोड़फोड़ तथा हिंसा की नौबत आ जाती है. ऐसी विषम स्थिति में हाईकोर्ट राज्य की शिक्षा को नहीं बचायेगा तो आखिर कौन बचायेगा? उसके पास बचाने का अनुभव भी है.

आगे की समस्या से बेपरवाह : सगुना मोड़ से दानापुर डीआरएम कार्यालय तक आठ लेन की चौड़ी सड़क निर्माणाधीन है. सड़क निर्माण तेजी से हो रहा है.

सड़क तो पहले से है. अब उसका चौड़ीकरण हो रहा है. आठ लेन की इस सड़क की योजना घोषित होने के साथ ही सड़क के दोनों किनारों पर तेजी से बड़े-बड़े विशाल व्यावसायिक भवनों का भी निर्माण होने लगा है. सड़क से हट कर दूर-दूर तक भी निर्माण हो रहा है. पर आने वाली समस्या का अंदाज कम ही लोगों को है.

न शासन को है और न निवासियों को. इस इलाके में सुव्यवस्थित व मजबूत नाले और जल निकासी की व्यापक व्यवस्था करने की सख्त जरूरत है. वह सरकारी प्रयास से ही हो पायेगा. उस पर हजारों करोड़ रुपये खर्च आयेंगे. पर उसकी ओर संभवतः अभी किसी का ध्यान नहीं है. लगता है कि वहां जब भारी जल-जमाव होने लगेगा तभी शासन की नींद खुलेगी.

अपनी-अपनी मजबूरियां : इस साल के प्रारंभ में आम आदमी पार्टी ने एक व्यवसायी और एक चार्टर्ड एकांउंटेंट को राज्यसभा में भेजा. अरविंद केजरीवाल ने कई बुद्धिजीवी साथियों के दावे को नजरअंदाज करके ऐसा किया.

उनका दावा वाजिब भी था. पर ‘आप’ भी क्या करे? उसकी अपनी मजबूरियां थीं. चंदा लाने और उसका ठीक से हिसाब रखने के लिए हर दल को ऐसे लोगों की जरूरत होती है जिस तरह के दो लोगों को ‘आप’ ने भेजा. इधर, विवादास्पद कमलनाथ को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नामित किया तो भी कुछ लोगों को आश्चर्य हुआ. इसमें कांग्रेस की अपनी मजबूरी रही. विधानसभा में कम बहुमत वाली सरकार को कोई अनुभवी व प्रौढ़ नेता ही बेहतर ढंग से चला सकता है.

उधर लोकसभा चुनाव भी सामने है. जिसे कभी इंदिरा गांधी का तीसरा बेटा कहा जाता था, उससे बेहतर उनके लिए कोई और कैसे होता? दरअसल, कुछ लोग दलों व नेताओं की मजबूरी समझते ही नहीं.

भूली-बिसरी याद : अभिनय सम्राट दिलीप कुमार ने 11 दिसंबर को अपने जीवन के 96 साल पूरे किये. पचास-साठ के दशकों के तीन सबसे बड़े कलाकारों में दिलीप साहब, राज कपूर और देवानंद के नाम लिये जाते थे. हमलोग सुनते थे कि इन तीनों में बड़ी तीखी प्रतियोगिता रहती है. यह भी अनुमान था कि इनके आपसी संबंध अच्छे नहीं होंगे.

पर हाल में दिलीप कुमार पर ऋषि कपूर के संस्मरण पढ़कर वह पुरानी धारणा बदल गयी. चिंटू ने लिखा है कि ‘मुझे लगता है कि राज कपूर उनको उसी तरह प्यार करते थे जिस तरह अपने भाइयों शम्मी और शशि को.’ ऋषि यानी चिंटू यानी दिलीप साहब के शब्दों में ‘सन्नी बाॅय’ लिखते हैं कि ‘यूसुफ अंकल चेम्बूर में मेरे घर आते थे, हर महीने के दूसरे इतवार को, जब फिल्म के कामगार अपने काम से छुट्टी लेते थे और स्टार्स को भी अपने घर में ही रहना पड़ता था. वे अक्सर मेरे सामने से गुजरते थे, जहां मैं अपने दोस्तों के साथ खेल रहा होता था. वे आते ही मेरे बालों को उड़ा कर पूछते थे, ‘कैसे हो सन्नी बाॅय?’ मुझे पता था कि वे सुपर स्टार दिलीप कुमार थे और यह भी कि वे और पापा पेशे में एक जैसे ही थे. मैं सुनता था कि पापा उनका स्वागत करते हुए कहते थे ‘लाले तूने देर कर दी.

मैं सुबह से इंतजार कर रहा हूं.’ वे एक-दूसरे से गले लगते और दोपहर में एक दूसरे के साथ खो जाते थे. पापा और यूसुफ अंकल जब साथ होते थे तो घर में उत्सव जैसा माहौल हो जाता था. मेरी मां सुबह से रसोई में यह बताती रहती थी कि दिन के खाने में क्या बनेगा.’

नेता या अपराधी! : आये दिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं की खबरें आती रहती हैं. आरोप लगता है कि फलां पार्टी के नेता को राजनीतिक कारणों से मार दिया गया. यह संभव है कि उनमें से कुछ हत्याएं राजनीतिक हों. पर इन दिनों जितनी अधिक संख्या में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं हो रही हैं, वे सब राजनीतिक कारणों से ही हो रही हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता. बाद में इस पर कोई खोजबीन नहीं होती. पर अलग से जो अपुष्ट खबरें मिलती हैं, उनके अनुसार अधिकतर हत्याओं का कारण गैंग वार या भूमि विवाद होते हैं.

इसी तरह के कुछ अन्य गैर राजनीतिक कारण भी बताये जाते हैं. दरअसल इन दिनों अपने काले धंधों को संरक्षण देने के लिए अनेक विवादास्पद लोग किसी न किसी दल में शामिल हो जाते हैं. पर जब अपने धंधों के कारण भी मारे जाते हैं तो उनकी हत्या राजनीतिक बता दी जाती है. चलिए इस बहाने उनकी मौत को एक ‘सम्मान’ तो मिल ही जाता है.

और अंत में : मध्य प्रदेश का चुनावी अंक गणित यह बता रहा है कि यदि बसपा से तालमेल हुआ होता तो कांग्रेस गठबंधन को दस सीटें और अधिक मिलतीं.

अब बताइए, जब बसपा मध्य प्रदेश में कांग्रेस को परेशानी में डाल सकती है तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का क्या होगा यदि उसका बसपा से गठबंधन नहीं होगा? पर समस्या यह है कि एक खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश में बसपा कम से कम 40 लोकसभा सीटों पर खुदलड़ना चाहती हैं. अधिक उम्मीदवार यानी उम्मीदवारों से अधिक चंदा!

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