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स्वच्छ चुनाव के लिए अदालत व आयोग की पहल सराहनीय

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक तमिलनाडु के वेलौर और त्रिपुरा के त्रिपुरा पूर्व लोकसभा क्षेत्रों के चुनाव रद्द कर दिये गये. कानून-व्यवस्था की समस्या और भारी नकदी की बरामदगी के बाद ऐसा किया गया. सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद योगी आदित्य नाथ, मायावती, आजम खान और मेनका गांधी के चुनाव प्रचार पर अस्थायी रोक लगायी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 19, 2019 6:17 AM

सुरेंद्र किशोर

राजनीतिक विश्लेषक

तमिलनाडु के वेलौर और त्रिपुरा के त्रिपुरा पूर्व लोकसभा क्षेत्रों के चुनाव रद्द कर दिये गये. कानून-व्यवस्था की समस्या और भारी नकदी की बरामदगी के बाद ऐसा किया गया. सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद योगी आदित्य नाथ, मायावती, आजम खान और मेनका गांधी के चुनाव प्रचार पर अस्थायी रोक लगायी गयी. कुछ अन्य नेताओं पर रोक लगाने की जरूरत है.

पर, चलिये शुरुआत अच्छी है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कार्रवाई देख कर लगता है कि आयोग की शक्ति वापस आ गयी है. यदि उन सारे चुनाव क्षेत्रों में ऐसी कार्रवाई हो जहां पैसे और बाहुबल से चुनाव नतीजों को पलटने की कोशिश होती रहती है तो इस देश के लोकतंत्र के लिए शुभ होगा.

टीएन शेषन की याद

1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने कहा था कि ‘मैं अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हूं, भले मुझे कोई अलसेसियन कहे या खलनायक या फिर पागल कुत्ता, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’ अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि ‘चुनाव में शांति बनाये रखने का काम शहनाई बजा कर नहीं हो सकता. मेरा बाॅस न तो प्रधानमंत्री हैं और न राष्ट्रपति. जनता ही मेरी बाॅस है.’ शेषण ने जब मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यभार संभाला था, उस समय चुनाव -प्रक्रिया में भारी अराजकता थी.

शेषण ने काफी हद तक काबू पाने की कोशिश की. उस समय बाहुबल का अधिक बोलबाला था. आज नकदी और जातीय-सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने पर अधिक जोर है. आज मुख्य चुनाव आयुक्त के और भी कड़े होने की जरूरत है. किन्तु कड़ाई विवेक के साथ हो.

एकाध बार शेषण पर विवेक का साथ छोड़ देने का आरोप लगा था. समय रहते यदि सुधार नहीं हुआ तो भारी धन-बल का जहर लोकतंत्र के लिए अधिक खतरनाक साबित होगा. टीएन शेषण के कुछ कामों से तब शासन, अदालत और संसद भी नाराज हो गयी थी. आज अदालत चुनाव आयोग के साथ है. एक बार फिर चुनाव नियमों की किताब के अनुसार काम जरूरी है, ताकि चुनाव -व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके.

मुद्दा वही जो मन भाये

कर्नाटका के एक बड़े नेता ने कहा है कि वंशवाद चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है. उन पर वंशवाद का आरोप है. बिहार के एक नेता बहुत पहले कह चुके हैं कि जिसे जनता ने चुनाव जितवा दिया, वह अपराधी कैसा?

इस देश के एक तीसरे नेता ने कहा था कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं क्योंकि वह तो विश्वव्यापी है. चौथा नेता कहते हैं कि बलात्कार कोई मुद्दा नहीं. लड़कों से गलतियां हो ही जाती हैं. पाचवां नेता कहता है कि परीक्षा में कदाचार कोई मुद्दा नहीं. परीक्षा केंद्र में इधर-उधर ताक झांक कर लेना कोई अपराध नहीं. छठा नेता कहता है कि राष्ट्रद्रोह कोई मुद्दा नहीं. हम सत्ता में आयेंगे तो इस कानून को ही खत्म कर देंगे.

कोई नेता एक रंग के आतंकवाद का बचाव करता है तो दूसरा नेता अन्य रंग के आतंकवाद का. ऐसी बातें करने वाले कोई मामूली नेता नहीं हैं. यही लोग दशकों से इस देश को चलाते रहे हैं. कैसा चल रहा है यह देश? मौजूदा चुनाव के नतीजे एक हद तक बता ही देंगे कि जनता की नजर में महत्वपूर्ण मुद्दे कौन से हैं.

और अंत में स्वाभाविक ही है कि मतदाता अपने सांसद से यह सवाल करे कि आप पांच साल तक यहां आये क्यों नहीं? 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे.

तब लोग सांसद से ऐसे सवाल नहीं करते थे. सांसद आज जितने सक्रिय थे भी नहीं. उनके काम उनके दल के विधायक ही कर दिया करते थे. करते भी थे तो विधायकों से. क्योंकि उनके विधायक ही रोज ब रोज उनके दुख-सुख में शामिल रहते थे. अब बेचारा सांसद चाह कर भी घर- घर जा नहीं सकता. क्यों नहीं फिर से संसद और विधानसभाओं के एक ही साथ चुनाव करने का प्रबंध हो जाये? ऐसी पहल नये सांसद कर सकते हैं. उन्हें इसका अधिक राजनीतिक लाभ मिलेगा.

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