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सांस लेने के लिए साफ हवा की कमी

राजधानी पटना धीरे-धीरे गर्म क्षेत्र में बदल रही है. इसकी वजह ऑक्सीजन के घनत्व में लगातार आ रही गिरावट, ओजोन और कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों को अवशोषित करने वाले पेड़ों का उजड़ जाना है. हालात ऐसे हैं कि गर्मियों में पटना शहर का तापमान अपने ही बाहरी इलाकों की तुलना में (सौ सालों […]

राजधानी पटना धीरे-धीरे गर्म क्षेत्र में बदल रही है. इसकी वजह ऑक्सीजन के घनत्व में लगातार आ रही गिरावट, ओजोन और कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों को अवशोषित करने वाले पेड़ों का उजड़ जाना है. हालात ऐसे हैं कि गर्मियों में पटना शहर का तापमान अपने ही बाहरी इलाकों की तुलना में (सौ सालों के औसत) से दो से सात डिग्री सेल्सियस तक अधिक रह रहा है. पढ़िए शहर में स्वच्छ हवा की कमी की पड़ताल करती राजदेव पांडेय की रिपोर्ट.
पर्यावरणीय असंतुलन से कम हुआ ऑक्सीजन घनत्व
पटना शहर के इस पर्यावरणीय असंतुलन की पटकथा बेली रोड से लिखी गयी. बेली रोड और उसकी सहायक सड़कों से देखते-देखते 10 हजार से अधिक पेड़ काट दिये गये. निजी पेड़ों के धराशायी होने की तो कोई गिनती नहीं है.
सरकारी पर्यावरण की रिपोर्ट कुछ भी कहे, लेकिन यह सच्चाई है कि पर्यावरणीय असंतुलन के चलते आज शहर में ऑक्सीजन का घनत्व कम हुआ है. यहां साफ हवा की कमी है. वैज्ञानिक आकलन के मुताबिक पटना शहर में 20 हजार पेड़ों की कटाई से कम-से-कम 46 लाख लीटर प्रतिदिन के हिसाब से ऑक्सीजन की कमी हुई है. एक पेड़ 230 लीटर ऑक्सीजन रोजाना छोड़ता है.
यही नहीं पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से शहर में कार्बन डाइ ऑक्साइड का घनत्व भी बढ़ा है. दरअसल प्रत्येक पेड़ साल में 2 लाख 34 हजार किलोग्राम कार्बन डाइ ऑक्साइड सोख लेता है. फिलहाल साल में 2़ 32 लाख किलोग्राम कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस अतिरिक्त वातावरण में समा रही है. इसकी वजह से शहर के तापमान में इजाफा हो रहा है. अगर शहर में साइक्लोनिक असर नहीं हो, तो शहर का तापमान औसत से ज्यादा ही रहता है.
पटना जिले में पेड़ों का घनत्व सबसे कम
पटना जिले का क्षेत्रफल 3202 वर्ग किलोमीटर है. इसमें वन क्षेत्र केवल 16 वर्ग किलोमीटर में है. जबकि आदर्श स्थिति के लिए एक हजार वर्ग किलोमीटर में वन क्षेत्र होना चाहिए. दूसरी तरफ पटना शहर का कुल क्षेत्रफल 517 वर्ग किलोमीटर है, इसकी तुलना में 150 वर्ग किलोमीटर (33 फीसदी) में हरियाली होनी चाहिए. हालात ऐसे हैं कि पटना शहर के एक फीसदी हिस्से में भी डेंस फॉरेस्ट नहीं है. शहर में अगर जू नहीं हो, तो शहर के हालात और कठिन हो जायेंगे. आधिकारिक जानकारी के मुताबिक देश में जहां प्रति व्यक्ति 28 पेड़ों की औसत उपलब्धता है, वहीं पटना शहर में पेड़ की उपलब्धता प्रति व्यक्ति एक भी नहीं है, जबकि एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए औसतन ढाई पेड़ों की जरूरत होती है.
पेड़ की जड़ भूगर्भीय जल के ठहरने में मददगार
जल संरक्षण विशेषज्ञ बताते हैं कि एक वयस्क
पेड़ की एक मीटर गहरी जड़ बीस हजार लीटरपानी भूगर्भीय जल सहेजती है. यह वह पानी है, जोउसके इर्द गिर्द रहता है. इसके अलावा भूगर्भ के जल प्रवाह को वहप्रवाहित भी करता रहता है. इस तरह यह पानी बैंक के रूप में काम करता है. पेड़ों में भी पीपल और बरगद जैसे वृक्ष तो पानी के भंडार हैं. सामान्य तौर पर एक पेड़ की जड़ कम-से-कम तीन से चार मीटर गहराई तक अवश्य जाती है. पीपल, नीम, इमली, बरगद और शीशम की जड़ें सात से आठ मीटर गहराई तक जाती हैं. इस तरह पटना में हजारों पेड़ों के काट देने से लाखों गैलन भूगर्भीय जल का नुकसान होना तय है.
कटाव से शहर की बड़ी आबादी पर मंडरा रहा खतरा
शहर में कंक्रीट के जंगल उन पेड़ों की कीमत पर विकसित किये जा रहे हैं, जो खुद मकानों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बिहार साइक्लोन और आंधी तूफान के लिहाज से हमेशा संवेदनशील रहा है. पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एमपी त्रिपाठी ने बताया कि पेड़ हवा की रफ्तार को ब्रेक करता है. कड़कती बिजली के साउंड को ब्रेक करके घरों की रक्षा करते हैं. दरअसल पेड़ों की कतारें हवा रोकने में दीवार का काम करती हैं. हवा की गति को यह पचास फीसदी तक रोक देते हैं. ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव को भी पेड़ कम कर देते हैं. इस तरह पेड़ों के बिना बहुमंजिले मकान अघोषित खतरे में हैं.
एक्सपर्ट व्यू
पटना सहित समूचा बिहार ताल और झाल के लिए जाना जाता था. ये सभी तकरीबन लुप्त हो गयी हैं. गंगा और दूसरी नदियों का निर्मल जल दूषित हो चुका है. पेड़ों के विनाश से भूजल भी सूखेगा. शताब्दियों से यह क्षेत्र जंगल के बीच सुव्यवस्थित बसे शहरों का था. दरअसल विकास के नाम पर राजनीति करने वाली सरकारों के पास पर्यावरण अब कोई मुद्दा नहीं है. पेड़ों के विनाश ने यहां की पूरी आबोहवा को बदल डाला है. जरूरत इस बात की है कि सरकारें पर्यावरण को तवज्जो दें, अन्यथा बिगड़ा पर्यावरण समूचे जनजीवन को प्रभावित करेगा. लोगों को भी चाहिए कि वह सरकारों के भरोसे न रहे. उन्हें चाहिए कि वह खुद अपना परिवेश सुधारें. हमें नहीं भूलना चाहिए कि बिगड़े भूगोल को फिर से बनाने में दशकों लगते हैं. जब तक एक पीढ़ी गुजर चुकी होती है, लिहाजा सबसे अच्छा यह है कि भूगोल को बदलने ही न दें.
राजेंद्र सिंह, जल पुरुष, विख्यात जल प्रबंधन विशेषज्ञ
पर्यावरण दिवस की सार्थकता इसमें है कि लोग पर्यावरणीय कानूनों की इज्जत करें.पर्यावरण की सुरक्षा केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, इसमें जनभागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए. निश्चित तौर पर कई पर्यावरणीय विसंगतियां देखी जा
रही हैं. दरअसल पर्यावरण का संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है. ग्लोबल वार्मिंग से लेकर कई स्थानीय पर्यावरणीय दिक्कतें हैं. इसके लिए कई एक्शन प्लान बनाये गये हैं, जिन्हें जमीन पर उतारा जा रहा है. अब जरूरी है कि सरकारी प्रयासों से जनता को सीधे जोड़ा जाये. नयी पीढ़ी में जागरूकता लानी जरूरी है, ताकि वह अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकें.
डॉ अशोक कुमार घोष, अध्यक्ष , केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

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