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डॉ जगन्नाथ मिश्र स्मृति शेष : ‘द्रष्टा’ थे हमारे छोटका काका
राजीव मिश्रा लेखक – वरिष्ठ पत्रकार एवं एमिटि टीवी के एडिटर इन चीफ हैं और डॉ जगन्नाथ मिश्र के भतीजे हैं बिहार ने आज एक राजनीतिक अभिभावक खो दिया और इस शून्य को भरने में काफी समय लगेगा. 19 अगस्त, 2019 की सुबह मेरे जीवन का अब तक का सबसे काला दिन. मैं हर दिन […]
राजीव मिश्रा
लेखक – वरिष्ठ पत्रकार एवं एमिटि टीवी के एडिटर इन चीफ हैं और डॉ जगन्नाथ मिश्र के भतीजे हैं
बिहार ने आज एक राजनीतिक अभिभावक खो दिया और इस शून्य को भरने में काफी समय लगेगा. 19 अगस्त, 2019 की सुबह मेरे जीवन का अब तक का सबसे काला दिन. मैं हर दिन की तरह सुबह तैयार होकर ऑफिस के लिए निकला. ऑफिस पहुंचते ही अपने सहयोगियों के साथ सुबह की मीटिंग शुरू की. इसी बीच मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी.
संजीव भैया लाइन पर थे. उनके कहने की जरूरत नहीं थी दिमाग ने कह दिया कि छोटका काका अब नहीं रहे.खुद को संभाला और सहयोगियों के साथ निकल पड़ा काका के अंतिम दर्शन के लिए. छोटका काका ने दिल्ली के अपने आवास पर अंतिम सांस ली. रास्ते भर मन में भावनाओं का सैलाब उमड़ता रहा. कई स्मृतियां मानस पटल पर उभरने लगीं. मेरे काका, डॉ जगन्नाथ मिश्र अपने पांच भाइयों में सबसे छोटे थे. मेरे पिता स्वर्गीय मृत्युंजय नारायण मिश्रा से छोटे थे छोटका काका. 1997 में मेरे सर से पिता का साया उठ गया.
मैं अभी अपना करियर को नयी ऊंचाई देने में जुटा था. ऐसे समय में मेरे सर पर काका ने हाथ रखा और तब से लेकर आजतक मैंने कभी महूसस ही नहीं किया कि पिता की कमी कैसी होती है. जब पत्रकार बनने का फैसला लिया तब छोटका काका ही मेरे साथ खड़े थे. एक बार की बात है कि मैं छोटका काका के साथ प्लेन से दिल्ली से पटना जा रहे थे. एयरपोर्ट पर मुझे बाथरूम जाने की तलब हुई.
छोटका काका पूछ बैठे क्यों परेशान दिख रहे हो. जब मैंने अपनी बात कही तो तपाक से उन्होंने कहा कि फिर जाते क्यों नहीं. मैंने इशारा किया कि हाथ में जो भारी बैग है उसे कहां रखूं. तुरंत उन्होंने मेरा बैग मेरे हाथ से अपने हाथ में ले लिया. एयरपोर्ट पर तमाम बड़े लोगों के बीच मेरा इंतजार करने लगे.
लोगों के मन में कौतूहल होने लगा कि केंद्रीय मंत्री ने किसका बैग अपने हाथों में टांग रखा है. काका घर के लोगों के लिए कभी भी मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं थे. परिवार के प्रति उनका समर्पण अद्भुत था. जब मैं लोकसभा टीवी में बतौर सीइओ था, तब संसद के सेंट्रल हॉल में वे मुझसे मिलने आये. अपने घर के बच्चे को लोकसभा टीवी का सीइओ के पद पर देख उनके चेहरे पर जो खुशी के भाव थे, मैं आज भी याद कर रोमांचित हो जाता हूं.
मुझे लगा कि साक्षात मेरे पिता मेरे सामने खड़े हैं. उनका चरण छूकर आशीर्वाद लिया फिर एक साथ हम दोनों खाना खाये. बात कम हुई, भावों के सहारे संवाद अधिक हुई. राजनीति के साथ ही उनको पढ़ने का बहुत शौक था. विभिन्न सामाजिक और आर्थिक विषयों पर करीब 40 से अधिक उनके शोधपत्र हैं जो देश के लिए एक थाती है. बिहार के सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के नाम है.
मैं एक राजनेता के रूप में अगर उनके बारे में कुछ कहूं तो एक ही शब्द सहज रूप से जेहन में आता है- वे एक ‘द्रष्टा’ थे. हमेशा कहते थे कि नेता को नीति कम से कम 40 साल आगे के लिए बनानी चाहिए.
बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने हाइ स्कूलों का राजकीयकरण कर एक क्रातिकारी कदम उठाया था. उनका कहना था कि शिक्षक देश का निर्माता होता है. ऐसे में शिक्षकों की जिम्मेदारी सरकार के कंधे पर होनी चाहिए. शिक्षा उनकी पहली प्राथमिकता थी. इसके लिए छोटका काका लीक से हटकर सूबे को बहुत कुछ देने में कामयाब रहे.
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