ट्रैफिक की तरह ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भी सजा में बढ़ोतरी जरूरी
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक यातायात नियमों के उल्लंघन पर जुर्माने की रकम में भारी वृद्धि की जरूरत महसूस की गयी थी. नतीजतन जुर्माना बढ़ाया गया. काफी बढ़ा दिया गया. सरकार को लगा कि कम बढ़ाने से काम नहीं चलेगा. इस कदम का आमतौर पर स्वागत ही हुआ है. उसी तरह भ्रष्टाचारियों के लिए भी सजा […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
यातायात नियमों के उल्लंघन पर जुर्माने की रकम में भारी वृद्धि की जरूरत महसूस की गयी थी. नतीजतन जुर्माना बढ़ाया गया. काफी बढ़ा दिया गया. सरकार को लगा कि कम बढ़ाने से काम नहीं चलेगा. इस कदम का आमतौर पर स्वागत ही हुआ है. उसी तरह भ्रष्टाचारियों के लिए भी सजा में बढ़ोतरी जरूरी मानी जा रही है. ट्रैफिक नियम भंग पर जुर्माने में हाल की बढ़ोतरी से पहले वाले जुर्माने का कोई असर नहीं हो रहा था.
2016 में देश भर में सड़क दुर्घटनाओं में करीब डेढ़ लाख लोग मरे. इसी अवधि में बिहार में करीब 5 हजार लोगों की जानें गयीं. याद रहे कि इस देश में भ्रष्टाचार के आरोप में दोषियों के लिए सामान्यतः तीन से सात साल तक की कैद की सजा का अभी प्रावधान है. वह सजा नाकाफी साबित हो रही है. पर, चीन में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप साबित हो जाने के बाद फांसी तक की सजा का प्रावधान है. हर साल डेढ़ लाख लोगों की जान जाने पर तो यातायात उल्लंघन के मामले में यहां सजा बढ़ा दी गयी.
पर, सवाल है कि भ्रष्टाचार के कारण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हर साल कितने लोगों की जानें जाती हैं? निश्चित तौर पर डेढ़ लाख से काफी अधिक लोगों की जानें जाती हैं. नकली और मिलावटी दवाओं के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें जाती हैं. मिलावटी खाद्य व भोज्य पदार्थ और भी अधिक लोगों की जानें लेते हैं. भ्रष्टाचार के कारण मौतों के और भी उदाहरण हैं. संबंधित सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत के बिना इतने बड़े पैमाने पर नकली सामान तैयार हो ही नहीं सकते जितने
अपने देश में तैयार होते हैं. इस देश में अब कितने ऐसे सरकारी दफ्तर बचे हैं, जहां बिना रिश्वत के लोगों के काम हो जाते हैं? यदि भ्रष्टाचारियों के लिए सजा बढ़ा दी जाये तो उसका सकारात्मक असर यातायात पर भी पड़ेगा.
आर्यभट्ट का भव्य स्मारक : भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट था, जो 19 अप्रैल, 1975 को अंतरिक्ष में छोड़ा गया था. चंद्रमा पर उपस्थित एक बड़ी दरार का नाम आर्यभट्ट रखा गया है. 1976 में यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500वीं जयंती मनायी थी. प्राचीन पाटलिपुत्र के वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने जो खोज की, उसने धरती से चांद तक की यात्रा में बड़ी मदद की.
यानी मिशन मून का पटना से 1500 साल पुराना रिश्ता है. इधर, आर्यभट्ट के जन्म स्थान और शोध स्थल पर उनका स्मारक बनाने के लिए भी बिहार सरकार सचेष्ट रही है. ताजा खबर है कि पटना के उपनगर खगौल में आर्यभट्ट का भव्य स्मारक बनाने का प्रस्ताव है. आर्यभट्ट का जन्म पटना में ही हुआ था. पटना का तब नाम कुछ और था. संभवतः खगौल के मोती चौक पर आर्यभट्ट की एक मूर्ति लगेगी.
एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनुसार खगौल को आसपास के मुख्य मार्गों से जोड़ा जाना है. आसपास के इलाकों को विकसित किया जाना है. इसके लिए खगौल और एनएच -98 के बीच की सड़क के चौड़ीकरण का प्रस्ताव है. यह सड़क अभी पतली है, जो नवरत्नपुर और कोरजी होते हुए चकमुुसा के पास एनएच – 98 से मिलती है. आर्यभट्ट की प्रतिष्ठा के अनुरूप किसी स्मारक की लंबे समय से जरूरत महसूस की जाती रही है.
बहाल हों ऊर्जा बचत सेवक : यह आम दृश्य है! सरकारी कार्यालय खाली है, किन्तु बत्तियां जल रही हैं और पंखे चल रहे हैं. जो सरकारी सेवक सबसे अंत में कार्यालय से निकला, उसका कर्तव्य था कि वह बत्ती-पंखा बंद कर देता.
पर, अधिकतर सेवक ऐसा नहीं करते. नतीजतन बिहार में मंत्रियों, अफसरों और कर्मचारियों की सुविधा के लिए चलने वाले बत्ती, पंखे, एसी और बिजली के अन्य उपकरणों पर हर साल 12 सौ करोड़ रुपये खर्च होते हैं. इसे कम करके छह सौ करोड़ रुपये आसानी से किया जा सकता है. पर, यह काम भला कौन करेगा? इसलिए क्यों नहीं हर सरकारी बिल्डिंग के लिए ‘ऊर्जा बचत कर्मचारी’ की बहाली हो. उसका काम सिर्फ यही हो कि वह घूम-घूम कर यह देखता रहे कि कहां के कमरे-हाॅल में अकारण बिजली का उपयोग हो रहा है.
और अंत में : राघव बाबा! संभवतः यही नाम था उनका. वे 1957 में उत्तर प्रदेश के एक विधानसभा चुनाव क्षेत्र में खड़े हो गये. निर्दलीय उम्मीदवार थे.
पराजय के बाद उन्हें बड़ा दुख हुआ. उनको मतदाताओं पर गुस्सा आया. फिर तो उन्होंने एक अनोखा काम किया. न भूतो, न भविष्यति! वैसा काम उससे पहले या बाद में किसी ने नहीं किया. राघव बाबा ने कुछ बच्चों को जुटाया. एक रिक्शे पर लाउडस्पीकर रखवाया. बच्चों का जुलूस निकला. आगे-आगे राघव बाबा. वे माइक पर खुद नारा लगाने लगे. ‘राघव बाबा जिंदावाद!’ ‘इस क्षेत्र की जनता मुर्दाबाद!!’ राघव बाबा का यह नारा बच्चे दोहराते जाते थे.
सड़क के किनारे खड़े दर्शकों का खूब मनोरंजन हुआ. राजनीतिक हलकों में दशकों तक इस रोचक घटना की चर्चा रही. हालांकि, आज के पराजित लोग भी अपनी या अपने मनपसंद दल की हार की खीझ कुछ दूसरे तरीकों से निकालते रहते हैं.