भितिहरवा से लौटकर रजनीश उपाध्याय
बिहार के नरकटियागंज से गौनाहा की दूरी करीब 19 किलोमीटर है और अधिकतर जगहों पर टूटी-फूटी और गड्ढों वाली यही एक लेन की सड़क श्रीरामपुर से भितिहरवा के लिए मुड़ जाती है. भितिहरवा तक जाने के लिए कोई सीधी बस सेवा नहीं है. ट्रेन तो है ही नहीं. ऑटो या अपनी सवारी ही सहारा है. फिर भी भितिहरवा दूर-दराज के लोगों को खींच लाता है. शायद दिल-दिमाग में बसे गांधी को जानने-समझने की यह उत्कंठा है. तभी तो बिहार और दूसरे राज्यों के अलावा पड़ोसी देश नेपाल से भी लोग बगैर किसी सुविधा के हर रोज यहां पहुंचते हैं.
भितिहरवा में बापू हैं, बा (कस्तूरबा) हैं और है गांधी का जीवन-दर्शन, जिसमें देश-दुनिया, गांव-समाज और घर-परिवार से जुड़ी तमाम जटिलताओं और सवालों को हल करने का तरीका है. 1917 में गांधीजी यहां आये. आजादी की लड़ाई की व्यस्तताओं की वजह से वह यहां कम ही रहे, लेकिन कस्तूरबा गांधी लंबे समय तक जमी रहीं. भितिहरवा संघर्ष और रचना की अनुपम प्रयोगस्थली रही है. गांधी जी 1917 में राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर पटना और मुजफ्फरपुर होते हुए कलकत्ता (अब कोलकाता) से चंपारण पहुंचे थे. नीलहों के अत्याचारों के खिलाफ किसानों के पक्ष में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़े. भितिहरवा को उन्होंने एक स्वस्थ, शिक्षित और आपसी भाईचारे वाला समाज बनाने की प्रयोगस्थली बनायी थी. गांधी स्मारक संग्रहालय के प्रभारी शिव कुमार मिश्र बताते हैं, चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने लोगों के बीच स्वास्थ्य, स्वच्छता और शिक्षा के प्रसार के लिए तीन स्कूल खोले थे- बड़हरवा लखनसेन, भितिहरवा और मधुबन में. बाकी दो का अस्तित्व अब नहीं रहा. भितिहरवा में लोग आज भी गांधी जी की अमूर्त उपस्थिति को महसूस करते हैं. पाठशाला के स्वयंसेवक (जिनमें डॉक्टर भी थे) आसपास के गांवों में जाकर सफाई और स्वास्थ्य के बारे में जानकारी देते थे.
भितिहरवा में जनसहयोग से गांधी की स्मृतियों को सहेज कर रखा गया है. गांधीजी की कुटिया, उनके द्वारा व्यवहार किया गया टेबल और एक चक्की, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे कस्तूरबा प्रयोग में लाती थीं, यहां मौजूद है. हां, स्कूल की एक घंटी भी है. यहां के कर्मचारी मदन महतो आगंतुकों को पुलकित होकर यह बताना नहीं भूलते कि फर्श उसी समय का है, जब इसका निर्माण किया गया था. गांधी स्मारक संग्रहालय में टंगे चित्र इतिहास से रूबरू कराते हैं. मुरली भरहवा के राजकुमार शुक्ल, सेमरा श्रीरामपुर के प्रहलाद राउत और अमोलवा के संत भगत जैसे अनेक मनीषियों की तस्वीरें हैं. 2017 में पंडुई नदी में आयी बाढ़ में आश्रम डूब गया था. तब से संग्रहालय की दीवार का प्लास्टर झड़ने लगा है. इसकी मरम्मत के लिए 1.04 लाख रुपये का प्राक्कलन तैयार हुआ, लेकिन फाइल कहीं दबी रह गयी. शत्रुध्न प्रसाद चौरसिया आशंका जाहिर करते हैं कि यह ऐतिहासिक धरोहर कहीं गिर न जाये. स्मारक संग्रहालय के कर्मियों को चार माह से वेतन भी नहीं मिला है. इसके बावजूद उन्होंने इसे पूरे मनोयोग से सहेज कर रखा है.
भितिहरवा आश्रम की वजह से इलाके के गांव-गांव में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी किसी न किसी रूप में मौजूद रहते हैं. आसपास के गांवों के बड़े-बुजुर्ग गर्व से बताते हैं कि गांधी जी उनके गांव भी आये थे. इस लिहाज से भितिहरवा सामुदायिक जीवन का एक संदेश भी देता है. लेकिन, बड़ा सवाल स्वच्छता के उस संदेश का है, जो यहां स्थापित होने वाली पाठशाला में निहित था. दो साल पहले आश्रम की स्थापना के सौ साल पूरे होने पर जोर-शोर से स्वच्छता के लिए अभियान की शुरुआत की गयी थी. अब यह शिथिल दिख रहा. आसपास के लोगों की अपेक्षा यह भी है कि गांधी स्मारक संग्रहालय को लोगों से जोड़ने के लिए नरकटियागंज या बेतिया से आवागमन की सुविधा मिले.
एक दिन में एक सौ लोगों ने मिलकर बना दी थी पाठशाला
भितिहरवा में आश्रम स्थापित करने की कहानी भी रोचक है. दस्तावेजों के मुताबिक, चंपारण की यात्रा के दौरान गांधीजी बेलवा कोठी क्षेत्र में एक ऐसे आश्रम की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें स्कूल भी हो. इसके लिए जमीन देने को कोई तैयार नहीं था, क्योंकि निलहा ए सी एम्मन का खौफ था. राजकुमार शुक्ल से भितिहरवा के रामजानकी म ठ के पुजारी बाबा रामनारायण दास की दोस्ती थी. राजकुमार शुक्ल की डायरी के मुताबिक, 16 नवंबर, 1917 को गांधीजी, देवनंदन सिंह, बीरबली जी और संत राउत को लेकर श्रीरामपुर के प्रहलाद भगत के घर पहुंचे तथा वहां से घूमते हुए भितिहरवा मठ पर आये. मठ के पुजारी दान के रूप में 11 कट्ठा पांच धूर जमीन देने पर पर राजी हो गये. तीन दिन बाद राजकुमार शुक्ल भितिहरवा पहुंचे और उन्होंने एक सौ आदमियों के सहयोग से पाठशाला के लिए मकान तैयार (फूस की) एक ही दिन में तैयार करायी. अगले दिन 20 नवंबर, 1917 को सुबह नौ बजे गांधी जी गोरख प्रसाद, हरवंश सहाय, महादेव देसाई आदि को लेकर भितिहरवा पहुंचे और आश्रम में स्कूल की शुरुआत हुई. दो शिक्षक रह गये, बाकी लौट गये. सदाशिव लक्ष्मण सोमन शिक्षक बने. 24 नवंबर, 1917 को यहां कस्तूरबा पहुंची. 13 दिसंबर, 1917 को गांधीजी फिर यहां आये. चंपारण सत्याग्रह आंदोलन से जुड़े प्रहलाद भगत के पोते शत्रुध्न प्रसाद चौरसिया बताते हैं कि इस फूस की झोपड़ी वाले इस आश्रम में एक दिन आग लगा दी गयी. इसके पीछे साजिश ए सी एम्मन की थी. संयोग था कि गांधी जी उस दिन नहीं थे. दूसरी बार आश्रम को खपरैल बनाया गया.