बिहार के थे राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति रखनेवाले और ताला खुलवानेवाले संत, …पढ़ें पूरी कहानी
अयोध्या विवाद के साथ बिहार का संबंध करीब 85 वर्ष पुराना है. राम जन्मभूमि का ताला खोलने के लिए दबाव बढ़ानेवाले रामचंद्र दास परमहंस हों या राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति स्थापित करनेवाले बाबा अभिराम दास, दोनों का संबंध बिहार से है. रामचंद्र दास परमहंस बिहार के छपरा जिले के रहनेवाले थे, तो बाबा […]
अयोध्या विवाद के साथ बिहार का संबंध करीब 85 वर्ष पुराना है. राम जन्मभूमि का ताला खोलने के लिए दबाव बढ़ानेवाले रामचंद्र दास परमहंस हों या राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति स्थापित करनेवाले बाबा अभिराम दास, दोनों का संबंध बिहार से है. रामचंद्र दास परमहंस बिहार के छपरा जिले के रहनेवाले थे, तो बाबा अभिराम दास मधुबनी जिले के मैथिल ब्राह्मण परिवार के थे. पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ में भी बिहार के दोनों संतों का जिक्र विस्तृत रूप से किया है. ताला खोलने के दबाव बनानेवाले रामचंद्र दास परमहंस वर्ष 1930 में ही अयोध्या पहुंच गये थे. उस समय से ही बिहार का संबंध अयोध्या विवाद के साथ जुड़ गया. वर्ष 1934 में ही रामचंद्र परमहंस रामजन्म आंदोलन से जुड़ गये थे. पढ़ें कौन हैं रामचंद्र दास परमहंस और बाबा अभिराम दास…
रामचंद्र दास परमहंस
रामचंद्र दास परमहंस जी महाराज का असली नाम चंद्रेश्वर तिवारी था. वह बिहार के छपरा जिले के सिंहनीपुर ग्राम निवासी सरयूपारीय, शांडिल्य गोत्रीय धतूरा तिवारी ब्राह्मण भगेरन तिवारी और सोना देवी के घर 1912 में चंद्रेश्वर तिवारी का जन्म हुआ था. बाल्यावस्था में ही चंद्रेश्वर की माता का देहांत हो गया. उसके कुछ दिनों बाद पिता भी नहीं रहे. इसके बाद चंद्रेश्वर के लालन-पालन का दायित्व उनके सबसे बड़े भाई यज्ञानंद तिवारी के कंधों पर आ गया. कुल चार भाई और चार बहनों में चंद्रश्वर भाइयों में सबसे छोटे थे. मंझले दोनों भाई भी अल्पायु में ही चल बसे. चंद्रेश्वर जब दसवीं कक्षा के छात्र थे, उसी समय यज्ञ देखने की लालसा हुई और किसी गांव में यज्ञ देखने चले गये. यहीं वे संतों के संपर्क में आ गये. हालांकि, घर आने के बाद किसी तरह 12वीं की परीक्षा पास की. उसके पश्चात् साधु जीवन को स्वीकार करते हुए साल 1930 में अयोध्या पहुंच गये. यहां परमहंस रामकिंकरदास के संपर्क में आये. यहीं उन्हें नया नाम ‘रामचंद्र दास’ मिला. युवा रामचंद्र दास को राम जन्मभूमि मुक्ति का कार्य सौंपा गया. वह 1934 में ही राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ गये. राम जन्मभूमि आंदोलन को और धार देने के लिए वह हिंदू महासभा से भी जुड़े और वह हिंदू महासभा के नगर अध्यक्ष भी बने. साल 1975 में रामचंद्र दास दिगंबर अखाड़े के महंत बन गये. कर्नाटक के उडुपी में साल 1985 के दिसंबर में रामचंद्र दास की अध्यक्षता में आयोजित हुई द्वितीय धर्म संसद में ही निर्णय हुआ था कि आठ मार्च 1986 को महाशिवरात्रि तक रामजन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खुला, तो महाशिवरात्रि के बाद ‘ताला खोलो आंदोलन’, ‘ताला तोड़ो’ में बदल जायेगा. रामचंद्र दास की घोषणा से पूरे देश में सनसनी फैल गयी. उन्होंने आत्मदाह करने की चेतावनी तक दे दी थी. जिसका परिणाम यह हुआ कि एक फरवरी, 1986 को ही ताला खुल गया. 1989 की जनवरी में होनेवाले प्रयाग महाकुंभ के अवसर पर आयोजित तृतीय धर्म संसद में ही शिलापूजन एवं शिलान्यास का फैसला रामचंद्र दास परमहंस की उपस्थिति में ही लिया गया था. उनके इस फैसले से विश्व के रामभक्त जन्मभूमि के साथ जुड़ने लगे. उसके बाद साल 1989 में ही राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष बन गये.
रामचंद्र दास परमहंस आयुर्वेदाचार्य होने के साथ-साथ संस्कृत के जानकार थे. वेदों के साथ-साथ भारतीय शास्त्रों पर भी उनकी पकड़ मजबूत थी. वह मजबूत कद-काठी वाले आक्रामक प्रवृत्ति के दृढ़ संकल्प शक्तिवाले जिद्दी साधु थे. अयोध्या में 30 नवंबर, 1990 को हुई पहली कारसेवा में कारसेवकों के जिस जत्थे पर गोली चली थी, उसका नेतृत्व भी रामचंद्र दास परमहंस ही कर रहे थे. रामचंद्र दास परमहंस को गोवा में साल 2000 में आयोजित केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक में मंदिर निर्माण समिति का अध्यक्ष चुना गया. उन्होंने 26 मार्च, 2003 को दिल्ली में सत्याग्रह के पहले जत्थे का नेतृत्व करते हुए अपनी गिरफ्तारी भी दी थी.
बाबा अभिराम दास
बाबा अभिराम दास भी बिहार के दरभंगा जिले के एक गरीब मैथिल ब्राह्मण परिवार से आते हैं. बलिष्ठ और हठी स्वभाव वाले अभिराम दास की गिनती अयोध्या के लड़ाकू साधुओं में होती थी. अशिक्षित होने के कारण उन्होंने शारीरिक बल को अपना सशक्त माध्यम बनाया. वह घंटों अखाड़े में कसरत करते थे. 45 साल की उम्र में भी वह कुश्ती लड़ते थे. छठ फुट के लंबे-चौड़े और गठीले शरीर वाले अभिराम दास नागा वैरागी थे.अभिराम दास राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति स्थपित करने का स्वप्न हमेशा देखते रहते थे. रामलला की मूर्ति स्थापित कराने के लिए वह एक बार फैजाबाद के तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह से भी मुलाकात की थी. साथ ही स्थानीय स्तर पर अफसरों और कर्मियों को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया. जाड़ा, गरमी, बरसात यानी सालों भर प्रतिदिन सरयू स्नान करनेवाले अभिराम दास के पास अष्टधातु की एक भगवान राम के बाल रूप की मूर्ति थी. इसी मूर्ति को लेकर वह एक दिन टोकरी में रख कर कपड़ों से ढक कर सिर पर उठाते हैं. रामचंद्र परमहंस तांबे के कलश में सरयू जल लेकर रामधुन गाते चल देते हैं. राम जन्मस्थान के बाहर चबूतरे पर अखंड कीर्तन कर रहे लोग होते हैं. यहां तैनात पुलिसबल के जवान तंबू में सो रहे होते हैं. जन्मस्थान के पास दो जवानों की ड्यूटी लगती थी. रामचरित मानस का नवाह्न पाठ (नौ दिन में रामचरित मानस खत्म कर देने का पाठ) का अंतिम दिन होता है. अंतिम दिन यज्ञ-हवन होना था. यहां ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल शेर सिंह से अभिराम दास की पुरानी जान-पहचान थी. दोनों के बीच गांजा-भांग का संबंध था. यहां नमाज नहीं पढ़ी जाती थी. सिर्फ अजान देने के लिए मुअज्जिन इस्माइल तैनात था. अभिराम दास मूर्ति के साथ गर्भगृह में प्रवेश कर सरयू के जल से फर्श धोकर लकड़ी के सिंहासन पर चांदी का एक सिंहासन रखा और उस पर कपड़ा बिछा कर मूर्ति रख दी. दीप-अगरबत्ती जला कर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर दी. शेर सिंह की ड्यूटी 12 बजे तक ही थी. एक बजे के बाद अगले कांस्टेबल अब्दुल बरकत को जगा कर ड्यूटी पर शेर सिंह ने भेज दिया. ड्यूटी पर करीब एक घंटे विलंब से पहुंचा कांस्टेबल बरकत रामलला के प्रकट होने की कहानी का समर्थन किया. कांस्टेबल बरकत ने प्राथमिकी में भी बतौर गवाह बताया कि देर रात करीब 12 बजे गुंबद के नीचे अलौकिक रोशनी हुई. रोशनी कम होने पर देखा की राम के बाल रूप की मूर्ति विराजमान थी.