सतीश कुमार शुक्ला
25 अप्रैल (शनिवार) को मैं अपने फ्लैट के हॉल में कुरसी पर बैठा था. किचेन में गैस चूल्हे पर कुकर चढ़ा था, तभी अचानक जोर-जोर से कुरसी हिलने लगी. जोर की आवाज सुनाई दी. मुङो लगा कि शायद आसपास कहीं प्लेन क्रेश हुआ है. उठना चाहा, तो पूरा कमरा हिल रहा था. किचेन की ओर बढ़ा, तो मैं धड़ाम से जमीन पर गिर गया. चूल्हे पर चढ़ा कुकर भी नीचे गिर गया. सिर में चोट लग गयी. मैंने साथ रहने वाले इंजीनियर साहब को आवाज लगायी, तो वे चिल्लाये- शुक्ला जी, भूकंप आया है. मैं डाइनिंग टेबल के नीचे घुस गया और मेरे इंजीनियर मित्र एक बेंच के नीचे छुप गये. करीब दो मिनट तक पूरा कमरा, दीवारें, फर्नीचर हिलते रहे. हमलोगों ने टेबल के पाये को जोर से पकड़ रखा था. वह इस तरह हिल रहा था, जैसा लग रहा हो कि कोई जोर-जोर से हिला रहा हो.
जब कंपन शांत हुआ, तो हमलोग पहले तल्ले से बदहवाश नीचे भागे. सामने एक छोटा मैदान है. देखता हूं कि वहां सैकड़ों लोग जमा हैं- रोते-बिलखते लोग. चारों तरफ चीख-पुकार मची थी. आसपास के मोहल्लों के कई भवन धराशायी हो चुके थे. मैं काठमांडू के ललितपुर में पूर्ण चंडी मंदिर के समीप मकान में रहता हूं. सब कुछ घर में छूट गया था. साथ में बस मोबाइल फोन था. मुजफ्फरपुर स्थित अपने घर पर सलामती की सूचना देने के बाद अब मैदान ही हमलोगों का आशियाना था. अभी सहज होने की कोशिश ही कर रहे थे कि दूसरा झटका आया. फिर तो मन में इतनी दहशत हो गयी कि फिर वापस अपने कमरे में जाने की हिम्मत नहीं बची. वहीं पर सूचना मिली कि नेपाल में जोरदार भूकंप आया है और धरहरा टावर भी धराशायी हो गया है. इस टावर के इर्द-गिर्द कई छोटी-छोटी दुकानें थीं, जो अब जमींदोज हो गयी हैं.
नेवार समुदाय के लोगों ने शाम में मैदान में ही चूड़ा और सब्जी की व्यवस्था की. दूसरे दिन भी आसपास के लोगों ने कुछ खाने-पीने की व्यवस्था की, लेकिन, न कुछ खाया जा रहा था और न नींद आ रही थी. भारत से एनडीआरएफ की टीम पहुंची, तो राहत और बचाव कार्य शुरू हुआ. एनडीआरएफ के काम की नेपाल में खूब प्रशंसा हो रही है.
वापस मुजफ्फरपुर आना मेरे लिए बड़ी समस्या बन गयी थी. भारत सरकार ने विमान से लोगों को ले जाने की व्यवस्था की थी, लेकिन एयरपोर्ट पर करीब दो किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी. जो बसें आयीं, उन पर चढ़ने के लिए मारामारी मची थी. तीन दिनों तक कैसे गुजारा, मैं ही जानता हूं. हर आदमी मौत की आशंका से भयभीत था, तो किसे-कौन दिलासा देता. रह-रह कर भूकंप के झटके आते, तो दहशत और बढ़ जाती. ऊपर से बारिश. पूरा शरीर कांपते रहता था. बड़ी मुश्किल से पानी मिल पाता था. वापसी के लिए 28 अप्रैल को किसी तरह एक विमान में टिकट की व्यवस्था हो पायी. थोड़ी जान में जान आयी. कमरे में गया और जो भी सामने दिखा, उसे एक बैग में डाला और निकल कर भागते हुए सड़क पर आ गया. मेरे एक छात्र ने मोटरसाइकिल से मुङो काठमांडू एयरपोर्ट तक छोड़ दिया. जब दिल्ली पहुंचा, तो लगा कि दूसरा जन्म हुआ. भूकंप का खौफ दिल-दिमाग में घूमते रहता है.
नेपाल में सब कुछ बरबाद हो चुका है. पूरी प्रशासनिक मशीनरी अस्त-व्यस्त है. बैंकों में जिनके लाखों रुपये जमा हैं, वे भी पैसे को मोहताज हैं. बड़े-बड़े व्यापारी खाने को मोहताज हैं. अभी तो सिर्फ शहरी इलाकों में बचाव दल काम कर रहा है. सिंधुपाल चौक और तातोपानी में तो बचाव दल पहुंचा भी नहीं है. जो लोग मलबे में दबे हैं, उनका जिंदा बचना मुश्किल लग रहा है. कई गांवों का अस्तित्व मिट चुका है. पर्यटन उद्योग यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ और रोजगार सृजन का मुख्य स्नेत था. सभी धरोहरें ध्वस्त हो गयी हैं, जो नेपाल की पहचान हुआ करती थीं. अब सबसे बड़ी चुनौती नेपाल के पुनर्निर्माण की है. विदेशी सहायता के बगैर यह असंभव है. यह तो बाद की बात, फिलहाल तो नेपाल के भूकंप प्रभावित सुदूर पहाड़ी इलाकों में जिंदा बचे लोगों के लिए भोजन, पानी और घायलों को इलाज की जरूरत है.
(त्रिभुवन विश्वविद्यालय में अंगरेजी के प्राध्यापक रह चुके श्री शुक्ला मुजफ्फरपुर के निवासी हैं. नेपाल में रहते हैं.)