भारतीय जनतंत्र अत्यंत ही नाजुक मोड़ पर

संवाददाता, पटनाभारतीय जनतंत्र आज अत्यंत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा है और उसे अपनी आबादी के बड़े हिस्से को यकीन दिलाना है कि उसने उसके साथ बराबरी का जो वादा किया था, उसे लेकर वह ईमानदार और गंभीर है. यह आबादी आदिवासियों, मुसलमानों की है, जो लगभग 70 साल के जनतांत्रिक अनुभव के बावजूद एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 27, 2015 9:06 PM

संवाददाता, पटनाभारतीय जनतंत्र आज अत्यंत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा है और उसे अपनी आबादी के बड़े हिस्से को यकीन दिलाना है कि उसने उसके साथ बराबरी का जो वादा किया था, उसे लेकर वह ईमानदार और गंभीर है. यह आबादी आदिवासियों, मुसलमानों की है, जो लगभग 70 साल के जनतांत्रिक अनुभव के बावजूद एक आसमान स्थित यापन करने को बाध्य हैं. आलोचना त्रैमासिक के दो अंकों के प्रकाशन के उपलक्ष्य में स्थानीय बीआइए सभागार में ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा ‘ विषय पर आयोजित परिचर्चा में शनिवार को विभिन्न वक्ताओं ने ये विचार व्यक्त किये. परिचर्चा में भारतीय जनतंत्र में जन की पहचान और उसकी सत्ता पर भी सवाल उठे. सामाजिक कार्यकर्ता आशीष रंजन ने गांवों में जातिगत भेदभाव और गरीबी से संघर्ष के अनुभवों से शहरी मध्यवर्ग की दूरी पर चिंता जाहिर की. राजनीति विज्ञान के अध्यापक प्रणव कुमार ने जनतंत्र की वैचारिक यात्रा परिप्रेक्ष्य में सवाल किया कि क्या उदार लोकतंत्र की एक मात्र रास्ता है. दैनिक इंकलाब के संपादक अहमद जावेद ने जनतंत्र की सामाजिक शिक्षा के अभाव की ओर संकेत किया. उन्होंने कहा कि प्रतीकों की राजनीति के समय में आक्र ामक प्रतीकों का सहारा लेना खतरनाक हो सकता है. पीयू में हिंदी के प्रोफेसर तरु ण कुमार ने बढ़ती लफ्फाजी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बढ़ते असर को ध्यान से देखने की जरूरत बताते हुए कहा कि फूहड़पन और आक्र ामकता जनतंत्र के लिए घातक है. उन्होंने पूंजी के बढ़ते असर का अध्ययन करने की आवश्यकता भी महसूस की. इन वक्तव्यों पर जीवंत चर्चा हुई और जनतंत्र की कमी का उत्तर जनतंत्र से देने की बात के साथ अल्पसंख्यकों की बढ़ती असुरक्षा को चिह्नित किया गया. कार्यक्रम का संयोजन आलोचना के संपादक अपूर्वानंद ने किया.

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