संपूर्ण क्रांति के 50 वर्ष पूरे होने पर आंदोलन को याद करते हुए झारखंड विधानसभा के पूर्व स्पीकर इंदर सिंह नामधारी कहते हैं कि पचास साल पहले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन में गजब का उत्साह था. इंमरजेंसी के दौर में रातोंरात विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता था. सेंसरशिप का हवाला दे कर अखबारों का भी मुंह बंद करा दिया गया था. इमरजेंसी के दौरान मेरी भी गिरफ्तारी को लेकर पुलिस लगातार छापेमारी कर रही थी. इसी क्रम में पुलिस मेरे घर पहुंची. जैसी ही पुलिस के पहुंचने की भनक मुझे लगी, तो वह वेश बदल कर भाग निकले. गिरफ्तारी से बचने के लिए मैं कोलकाता, दिल्ली, हरियाणा और चंडीगढ़ में रिश्तेदारों के घर छुपा रहा. दिल्ली वापस आकर कैलाशपति मिश्र से मिला. उस वक्त श्री मिश्र हमारे परिवार की कोठी में रह रहे थे. उनके साथ कोलकाता में रहा. दो-तीन माह के बाद जब यह लगा कि पुलिस दबिश कम पड़ रही है, तो मैं किसी तरह छुपते-छुपाते डालटनगंज पहुंचा.
हर बुराई के पीछे छुपी होती है कुछ अच्छाई
इस दौरान ज्यादातर भूमिगत रहे, लेकिन इसके बाद भी पुलिस उनके पीछे पड़ी रही. सितंबर की एक शाम एक स्कूल में अपने भतीजे के साथ फुटबॉल खेलने चले गये. इसी दौरान कुछ ही देर में पुलिस वहां पहुंच गयी. चारों तरफ से घेर लिया और मुझे गिरफ्तार कर डालटनगंज जेल में डाल दिया. इमरजेंसी के दौरान 17 महीने मैंने जेल में बिताये . इंदिरा की हुकूमत ने राजनीतिक विरोधियों को एक नये कानून मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट (मीसा) के तहत बंदी बनाया था. यह ऐसा अंधा कानून था, जिसमें वकील पैरवी नहीं कर सकते थे. कहते हैं न कि हर बुराई के पीछे कुछ अच्छाई छुपी होती है. जेल के दौरान जब मेरी मेडिकल जांच हुई, तब मुझे पता चला कि मैं मधुमेह से पीड़ित हूं. इसके बाद खान-पान में संयम बरतने लगा. जेल में अनिश्चितकाल के लिए रहने की अफवाहें तब परेशान करती थीं. इस दौरान कई लोग तो बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करके जेल से निकल गये.
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सभी अधिकारी नहीं थे दमनमनकारी
उन्होंने आगे कहा कि इस दौरान उनके गुरुजी भी जब जेल में उनसे मिलने आये, तो उन पर भी बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करने का दवाब बना, क्योंकि इसके समर्थन करने के बाद 24 घंटे के भीतर जेल से बाहर आने की गुंजाइश थी, लेकिन मैंने ऐसा करने से इनकार कर दिया, क्योंकि यह कदम से सीधे तौर पर पार्टी के साथ विश्वासघात होता. आपातकाल के दिनों में सभी अधिकारी दमनमनकारी नहीं थे. सरकार के दवाब के बाद भी मानवीय आधार पर राजनीतिक बंदियों की मदद भी करते थे. तब के तत्कालीन जेल अधीक्षक बीएल दास जेपी के प्रबल समर्थक थे. इसके कारण उन्हें सरकार को कोप सहना पड़ा. उन्हें सस्पेंड कर दिया गया, लेकिन 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद नयी सरकार ने उनके निलंबन को वापस ले लिया था.