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चुनाव लड़ने के लिए बूट पॉलिश कर पैसे जुटाये

रामबहादुर आजाद पूर्व विधायक,खगड़िया जिले के वयोवृद्व समाजवादी नेता एवं बिहार विधानसभा के दो बार सदस्य रह चुके राम बहादुर आजाद का मानना है कि 60 एवं 70 के दशक के चुनाव एवं वर्तमान के चुनाव में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है. पहले देशभक्ति और ईमानदारी के बल पर नेता चुनाव लड़ते थे. पर, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 7, 2015 1:45 AM
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रामबहादुर आजाद

पूर्व विधायक,खगड़िया

जिले के वयोवृद्व समाजवादी नेता एवं बिहार विधानसभा के दो बार सदस्य रह चुके राम बहादुर आजाद का मानना है कि 60 एवं 70 के दशक के चुनाव एवं वर्तमान के चुनाव में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है. पहले देशभक्ति और ईमानदारी के बल पर नेता चुनाव लड़ते थे. पर, आज का चुनाव धनबल, बाहुबल और जातिबल पर लड़ा जा रहा है.

1967 एवं 1969 में खगड़िया विधानसभा से विधायक रहे आजाद कहते हैं कि पहले न तो उम्मीदवारों के पास अपनी कोई जमा-पूंजी होती थी और न ही पार्टी चुनाव लड़ने के लिए फंड देती थी. उस समय जनता नेताओं की ईमानदारी के कारण चुनाव लड़ने के लिए पैसे भी देती थी और वोट भी. युवा कार्यकर्ताओं द्वारा चुनाव लड़ने के लिए चुनाव पूर्व एवं चुनाव के दौरान कई प्रकार से धन संग्रह किया जाता था. चंदा मांगने के साथ-साथ बूट पॉलिश तक किया जाता था.

आजाद अपने समय के चुनाव को याद करते हुए कहते हैं कि उस समय पार्टी में आलाकमान की कम चलती थी. स्थानीय नेताओं से फीडबैक लेकर पार्टी का टिकट तय किया जाता था. अब तो टिकट बंटवारे में परिवारवाद, जातिवाद, धन एवं बाहुबल सब चल रहे हंै. वर्षों तक पार्टी की सेवा करने वाले यूं ही पार्टी की सेवा करते रह जाते हैं और कोई ऊपर से पैसे के बल पर, जाति के बल पर, परिवार के बल पर टिकट ले लेता है.

आजाद बताते हैं कि उस समय चुनाव लड़ने के लिए उनके पास अपना एक रुपया नहीं था. नामांकन से लेकर चुनाव लड़ने तक के खर्च का इंतजाम चंदे से हुआ था. उस समय विधायक को मात्र 500 रुपये मिलते थे. कोई एमएलए फंड भी नहीं था. उसी 500 रुपये में हम लोंगों को मकान किराया, जनता की सेवा, आना-जाना और पार्टी को चलाने के लिए पार्टी फंड में चंदा भी देना पड़ता था. आजाद कहते हैं कि उस समय सकारात्मक राजनीति होती थी. विरोध सार्थक होते थे और सदन में चर्चा भी गंभीर. पर, आज सब कुछ उलटा हो गया है. अब वोट का ध्रुवीकरण भी जाति के हिसाब से होता है. मैं जिस जाति से हूं, उस जाति की संख्या खगड़िया में काफी कम थी, लेकिन मैंने यहां से दो बार चुनाव जीता.

और मैंने दोनों बार उन्हीं उम्मीदवारों को हराया, जिनके जाति की यहां बहुलता थी. इससे उस समय के जनता के मूड का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह अपनी जाति के उम्मीदवार के बदले ईमानदार छवि के उम्मीदवार को वोट देना पसंद करती थी.

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