पारंपरिक वोट बिखरने का नतीजा

प्रमोदानंद दास, इतिहास के प्राध्यापक कांग्रेस के पारंपरिक वोट खत्म हो चुके हैं. पहले जहां उसे समाज अगड़ी, पिछड़ी, दलित जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय का वोट मिलता था, वह उससे विमुख हो चुका है. वह सामाजिक उथल-पुथल के साथ खुद को जोड़ नहीं सकी. कांग्रेस का नेतृत्व अगड़ी जातियों के पास रहा. इसका भी एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 10, 2015 1:03 AM

प्रमोदानंद दास, इतिहास के प्राध्यापक

कांग्रेस के पारंपरिक वोट खत्म हो चुके हैं. पहले जहां उसे समाज अगड़ी, पिछड़ी, दलित जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय का वोट मिलता था, वह उससे विमुख हो चुका है. वह सामाजिक उथल-पुथल के साथ खुद को जोड़ नहीं सकी. कांग्रेस का नेतृत्व अगड़ी जातियों के पास रहा. इसका भी एक संदेश गया. समाज में आयी राजनैतिक जागृति के कांग्रेस खुद को ढालने में नाकाम रही. केवल अध्यक्ष पद पर किसी अल्पसंख्यक या दलित को बैठा देने से बात नहीं बनेगी, देखना होगा कि आपका चरित्र बदला या नहीं? अगर ऐसा नहीं रहता को कांग्रेस को अल्पसंख्यक या दलित जातियों के वोट मिल जाने चाहिए थे. पर व्यवहार में दिख रहा है कि उसका वोट प्रतिशत गिरता ही जा रहा है.
डॉ लोहिया ने साठ के दशक में ही पिछड़ा पावे सौ में साठ का नारा दिया था. वह सामाजिक संरचना को समझ रहे थे. लेकिन तब भी कांग्रेस नेतृत्व इस सच्चई को समझ नहीं पा रहा था. लोकतंत्र में संख्याबल का महत्व है और इसकी आप कैसे अनदेखी करेंगे? मंडल के बाद समाज में चेतना आयी. पिछड़ों, दलितों को लगने लगा कि वह खुद राजनीति में दखल क्यों नहीं दे सकते. कांग्रेस को पुनर्वापसी करनी है तो उसे समाज और उसके सवालों से टकराना पहली शर्त है. यह पार्टी जिस हाल में पहुंच गयी है, वहां से उठने के लिए उसे सामाजिक एजेंडे की शिनाख्त करनी होगी. लेकिन क्या पार्टी इसके लिए तैयार है?

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