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क्या मांझी मंझधार में रोकेंगे एनडीए की नैया?

विष्णु कुमार नयी दिल्ली : बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को शुरुआती दौर में ही लोहे के चने चबाने पर रहे हैं. उसकी यह मुश्किलें घर से बाहर वालों ने नहीं, बल्कि अपने ही सहयोगी दलों ने खडी की है. पहले रामविलास पासवान व उपेंद्र कुशवाहा तो अब जीतन राम मांझी ने भाजपा के सीट […]

विष्णु कुमार

नयी दिल्ली : बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को शुरुआती दौर में ही लोहे के चने चबाने पर रहे हैं. उसकी यह मुश्किलें घर से बाहर वालों ने नहीं, बल्कि अपने ही सहयोगी दलों ने खडी की है. पहले रामविलास पासवान व उपेंद्र कुशवाहा तो अब जीतन राम मांझी ने भाजपा के सीट बंटवारे फार्मूले में पेंच फंसा दिया है. मांझी भाजपा के द्वारा 15 या 20 सीट दिये जाने के फार्मूले से सहमत नहीं हैं. हालांकि खबर है कि मांझी फिर से अमित शाह से मिलने के बाद सहमत हो गये हैं और मिठाई खाते-खिलाते फोटो भी मीडिया में आ चुकी है. लेकिन, तय है कि मांझी अब इस फार्मूले पर फिर अपनी पार्टी के नेताओं से विमर्श करेंगे और उसका बाद ही उनका फाइनल स्टैंड साफ होगा.
दरअसल, मांझी के भाजपा से सहमत होने या फिर असहमत होने की पिछले तीन-चार दिनों से मिश्रित खबर आ रही है. कभी हां, तो कभी ना.
मांझी ने अमित शाह को भी उलझाया
अमित शाह जैसे राजनीति के मंझे खिलाडी को जीतन राम मांझी ने उलझा दिया है. मांझी के दबाव के कारण अमित शाह को पहले तो शनिवार की अपनी प्रेस कान्फ्रेंस और फिर अपना बेंगलुरु दौरा टालना पडा था. इससे इस बात अहसास होता है कि मौजूदा दौर में देश की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के लिए बिहार की एक छोटी पार्टी के अध्यक्ष कितनी अहमियत रखते हैं.
भाजपा क्यों चाहती है कि मांझी कम सीटों पर लडें?
यह भी सवाल सहज उठता है कि आखिर भाजपा क्यों चाहती है कि जीतन राम मांझी कम सीटों पर चुनाव लडें? भाजपा के तीनों सहयोगी दलों में अभी सर्वाधिक विधायक मांझी के पास ही हैं. उनके पास 13 विधायक हैं. क्या मांझी को 15 या 20 सीटें देना उनकी प्रतिबद्धता पर संदेह का सूचक है? अगर मांझी इतनी सीटें लडें और जीतें जिससे वे बिहार में सरकार बनाने व गिराने में निर्णायक की भूमिका अदा करने लगें, तो क्या यह भाजपा के लिए मुश्किल भरी स्थिति होगी? ये सवाल अहम हैं और मांझी के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए और अहम हो जाते हैं.
दरअसल, मांझी के पास कोई सांसद नहीं है, इस कारण उन्हें केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में हिस्सेदारी नहीं मिली है. ऐसे में केंद्र सरकार के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है, उनका जुडाव सिर्फ जीत की स्थिति में राज्य में बनने वाले एनडीए की भावी सरकार से हो सकता है.
जबकि दूसरे घटक दल लोजपा के अध्यक्ष रामविलास पासवान व रालोसपा के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री हैं. ऐसे में भविष्य में राज्य में एनडीए की किसी संभावित सरकार के साथ वे मुश्किलें नहीं खडी कर सकते हैं, क्योंकि राज्य में उठाये जाने उल्टे कदम की कीमत उन्हें केंद्र में चुकानी होगी. जबकि मांझी पर यह चीज लागू नहीं हो सकेगी. शायद, इसलिए भाजपा की यह रणनीति हो कि सत्ता में मांझी की भागीदारी तो हो, लेकिन उसकी चाभी उनके पास नहीं हो?
बिहार की राजनीति का दलित फैक्टर और मांझी इफेक्ट
जीतन राम मांझी की उम्र भले ज्यादा हो, पर बिहार की राजनीति के वे सबसे नये प्रासंगिक सितारे हैं. नीतीश कुमार का तीखा विरोध कर उनसे अलग होने के बाद मांझी दलितों के स्वभाविक प्रतीक नजर आते हैं. हालांकि पासवान पहले से दलितों के प्रतीक रहे हैं, लेकिन वे अपेक्षाकृत सामाजिक रूप से मजबूत पासवान समुदाय के हैं, जबकि मांझी महादलित समुदाय से आते हैं. मांझी चाहे जब मीडिया से मुखातिब हों या फिर जनसभा का चुनावी कार्यक्रमों को संबोधित कर रहे हों, तो बिहार की राजनीति में दलितों आक्रोश के स्वभाविक प्रतीक नजर आते हैं, जो उन्हें उस समुदाय से सीधे तौर पर जोडता है. यह चीज राजनीतिक रूप से उनके पक्ष में जाती है, जो राज्य भर में लगभग आठ प्रतिशत दलित वोटों को एनडीए के पक्ष में लाने में मददगार हो सकती है. और, अगर मांझी रूठ कर भाजपा से दूर तीसरे मोर्चे में जाते हैं, तो वे इन्हीं वोटों को उससे दूर कर उसे सत्ता से भी दूर कर सकते हैं.

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