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महागंठबंधन में टिकट बंटवारा : जातीय गोलबंदी से विकास की तलवार को धार देने की हुई कोशिश

पटना : बिहार में महागंठबंधन ने 242 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. सूची साफ तौर पर ये बता रही है कि इस चुनाव में महागंठबंधन में शामिल पार्टियों ने जातीय समीकरण को भी ध्यान में रखा है. गत बिहार विधानसभा चुनावों की ओर देखें तो उसमें एक बात स्पष्ट दिखती थी कि 2005 […]

पटना : बिहार में महागंठबंधन ने 242 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. सूची साफ तौर पर ये बता रही है कि इस चुनाव में महागंठबंधन में शामिल पार्टियों ने जातीय समीकरण को भी ध्यान में रखा है. गत बिहार विधानसभा चुनावों की ओर देखें तो उसमें एक बात स्पष्ट दिखती थी कि 2005 और 2010 के चुनाव में जाति की वजाए विकास के मुद्दे को ज्यादा तरजीह दी गयी थी. इस बार ऐसा नहीं है. ऐसा लगा था बिहार में जातिगत समीकरण पर होने वाली सियासत की जंग अब नहीं होगी. बिहार पूरी तरह बदलने लगा है. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. महागंठबंधन साफ तौर पर सियासत के धनुष पर जाति का तीर चलाने के लिए तैयार है. उम्मीदवारों की लिस्ट में अलग से ये भी इंडिकेट किया गया है कि कौन से उम्मीदवार किस जाति के हैं.

महागठबंधन की लिस्ट में यादव उम्मीदवारों की संख्या ज्यादा है. वहीं दूसरी ओर ब्रम्हाण,भूमिहार और राजपूत के साथ कायस्थ पर भी महागंठबंधन ने दाव खेला है. समाजवादी गोद से निकले लालू-नीतीश ने पूरी तरह जाति को समाज का अहम हिस्सा मानते हुए उम्मीदवारों की लिस्ट बनाई है. महागंठबंधन में लालू सहभागी हैं और टिकट बंटवारे में उनका असर साफ दिखता है. आंकड़ों पर गौर करें तो लालू-राबड़ी के शासन के वक्त बिहार की राजनीति में यादवों का दबदबा था. लालू पहली बार 1990 में बिहार की गद्दी पर बैठे तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी. जबकि लालू की राजनीति जब परवान पर थी तो 1995 में यादव विधायकों की संख्या बढ़कर 86 हो गई.

महागंठबंधन की दोनों प्रमुख घटक दल राजद और जदयू ने ओबीसी वर्ग से 134 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, जिसमें यादव की संख्या 62, कोइरी 30 और कुर्मी जाति से 17 लोग शामिल हैं. एमवाइ समीकरण यानी यादव मुस्लिम समीकरण को अपना मूल आधार बताने वाली पार्टियां महागंठबंधन में शामिल हैं. एमवाइ समीकरण पर पहले लालू का कब्जा माना जाता था लेकिन गठबंधन हो जाने के बाद अब ये समीकरण कांग्रेस, राजद और जदयू के पाले में भी है. महागंठबंधन की ओर से 33 मुस्लिम उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की गई है. जो पसमांदा जाति से आते हैं. महागंठबंधन उच्च जातियों पर भी अपना दाव खेलने से नहीं चुकी है. हालांकि बिहार में ये चर्चा है कि अनंत सिंह के जेल जाने और शाहाबाद इलाके में ब्रम्हेश्वर मुखिया की हत्या के बाद भूमिहार जाति के लोग सत्तापक्ष से नाराज हैं.

शायद इसीलिए महागंठबंधन ने भूमिहार जाति पर अपना दाव कम खेला है और मात्र 9 भूमिहारों को टिकट दिया है. हालांकि राजपूतों पर विश्वास कायम है और 14 राजपूतों को टिकट जारी किया गया है. 11 ब्राम्हणों और 5 कायस्थ के साथ ऊंची जातियों को लुभाने का भी खेल जारी है.

हालांकि की नीतीश कुमार का साफ कहना है कि उनकी पार्टी सिर्फ और सिर्फ विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेगी. लेकिन लिस्ट से साफ स्पष्ट होता है कि नीतीश कुमार 5.5 फीसदी कुर्मी वोटों को भी अपने पाले में करने की कोशिश में हैं. साथ ही 21 प्रतिशत पिछड़ी जाति के वोटों पर भी नजर गड़ाए हुए हैं. गत लोकसभा चुनाव की ओर नजर डाली जाए तो जदयू,राजद और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव मैदान में उतरे थे और तीनों का वोट प्रतिशत 45.06 जो भाजपा को मिले 36.48 फीसदी वोट से काफी अधिक था. इस तरह महागंठबंधन की जड़ को देखें तो वो भाजपा से मजबूत दिखती है.

राजद के कई कार्यकर्ता और नेता राजद के उम्मीदवारों की सूची से नाराज होकर प्रदर्शन कर रहे हैं. राजद के टिकट बंटवारे में पूरी तरह लालू की चली है. लालू ने अपने दोनों बेटों के साथ जिस उम्मीदवार को भी टिकट दिया है वो आर्थिक रूप से मजबूत और अपने इलाके में अपनी जातियों पर पैठ वाले माने जाते हैं. लालू ने यादव, मुस्लिम और उच्च जातियों का एक कॉकटेल तैयार करके पेश किया है, जिसका फायदा उन्हें मिलता है कि नहीं ये चुनाव के बाद पता चलेगा.

वहीं कांग्रेस में टिकट बेचने का आरोप लगने लगा है. कांग्रेस ने टिकट बंटवारे में उम्मीदवारों की क्षेत्र पर पकड़ को योग्यता के रूप में निर्धारित नहीं किया है. कांग्रेस ने बक्सर से संजय कुमार तिवारी उर्फ मुन्ना तिवारी को टिकट दिया है. जबकि उनकी पैठ बक्सर के ही राजपुर विधानसभा में मानी जाती है. कांग्रेस ने अपने परंपरागत जातिगत समीकरण को बरकरार रखते हुए मुस्लिम औरसवर्णजाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है. महागंठबंधन की पूरी लिस्ट समाजवादी सोच से भले निकली हो लेकिन इसमें जातिगत गोलबंदी को प्रमुखता दी गई है. लिस्ट को तैयार करने में पार्टी के कार्यकर्ताओं से ज्यादा प्रमुख नेताओं की चली है. यही कारण है कि इन पार्टियों में विरोध के स्वर तेज हो गए हैं.

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