धनौर में भी धनिक नहीं हो पाये मछुआरे
इस चुनाव में निषाद जाति की भी खूूब चर्चा है. दोनों बड़े गंठबंधन निषाद जाति को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं. इनके नाम पर कुछ छोटी पार्टियां भी खड़ी हो गयी हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि निषाद जाति के लोग किस हाल में जी रहे हैं. मुजफ्फरपुर – […]
इस चुनाव में निषाद जाति की भी खूूब चर्चा है. दोनों बड़े गंठबंधन निषाद जाति को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं. इनके नाम पर कुछ छोटी पार्टियां भी खड़ी हो गयी हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि निषाद जाति के लोग किस हाल में जी रहे हैं. मुजफ्फरपुर – दरभंगा की सीमा पर स्थित धनौर की बागमती के तटबंध पर बसी मछुआरों की बस्ती में पहुंच कर उनका हाल जाना पुष्यमित्र ने.
धनौर मतलब धन भी और उर(हृदय) भी. मतलब यहां के लोगों के पास भी धन भी था और वे दिलवाले भी थे.’’ गांव की शुरु आत में ही मिले विनोद जी हमें इस गांव के नाम का मतलब बता रहे थे.
उनके बीमार पिता ने कहा कि यह जमींदारों की बस्ती है. इस गांव में कई लोग ऐसे हुए, जिनकी जमीन 50-50 गांवों में थी. बीस-बीस हजार, पचास-पचास हजार बीघा तक. एक सज्जन तो ऐसे हुए कि जिन्होंने तय कर लिया कि वे पूजा करने जनकपुर अपनी ही जमीन पर बने रास्ते पर चल कर जायेंगे. जनकपुर यहां से 100 किमी दूर है. उन्होंने यहां से जनकपुर के बीच बसे सभी गांव में थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीदी और उस पर बने रास्ते पर चल कर जनकपुर तक गये. मगर यह सब पहले की कहानियां हैं. जमींदारी खत्म होने पर ऐसे सारे लोग जमीन पर आ गये हैं.
विनोद जी और उनके पिता की कहानियां इस गांव के बारे में जो सुखद भाव जगाती हैं, इस गांव के मल्लाहों की हालत देख कर ध्वस्त हो जाती हैं. गांव में 1200 से अधिक मल्लाहों के घर हैं. मगर इनमें से एक के पास भी अपनी जमीन नहीं हैं. जिस जमीन पर वे बसे हैं, उसका बासगीत परचा भी अधिकतर लोगों के पास नहीं है. ज्यादातर घर आधा डिसमिल से लेकर एक डिसमिल तक की जमीन पर बने हैं. छोटा सा आंगन, फूस की दो कोठरियां, बस खत्म.
सब के सब भीषण गरीबी का शिकार हैं, मगर एक तिहाई लोगों के पास ही बीपीएल कार्ड है. 60-65 लोगों को ही इंदिरा आवास मिला है. बच्चे स्कूल तो जाते हैं मगर अनपढ़ ही रह जाते हैं. शौचालय की कौन पूछे, घरों में नहाने-धोने की भी व्यवस्था नहीं. आखिर यह हाल क्यों है? धनौर का धन इनके हिस्से में क्यों नहीं, उर(हृदय) वाले धनियों का हृदय इनके लिए ही क्यों छोटा पड़ गया?
चार सौ से अधिक परिवार हाल ही में बागमती नदी पर बने तटबंध के किनारे बसे हैं. पहले यह गांव तटबंध के अंदर आने वाला था. मगर गांव के पावरफुल लोगों ने पैरवी करके किसी तरह इस गांव को बचा लिया. गांव के पास रिंग बांध बन गया. मगर गरीब मछुआरों के घर तटबंध के अंदर ही समा गये, लिहाजा इन्हें तटबंध के किनारे की सरकारी जमीन पर बसना पड़ा. वहां मिले 42 साल के उपेंद्र सहनी, कहने लगे हमारा सबसे अधिक नुकसान इस तटबंध ने किया है.
पहले बरसात में नदी का पानी आसपास फैलता था तो गांव के तालाब और गड्ढे भर जाते थे. हमलोग वे गड्ढे जमीन मालिकों से मोल ले लेते थे और फिर वहां मछलियां पकड़ते थे. अब जब से ये तटबंध बना हैं, हमलोगों को भात-रोटी का भी आफत हो गया है.
उपेंद्र सहनी बताते हैं,आजादी के बाद से राज्य की सभी नदियों को तटबंध बना कर घेर दिया गया. इन तटबंधों ने बाढ़ से लोगों की सुरक्षा की या नहीं यह तो पता नहीं, मगर वरु ण के बेटे, मल्लाह और मछुआरे जो नदी की धाराओं के साथ खेलते-कूदते थोड़ा खुशहाल जीवन जी रहे थे. एक झटके में कंगाल हो गये. अब न नावें चलती हैं, न बाढ़ के पानी से इलाके गड्ढ़ों में पानी भरता है, जहां वे मछलियां पकड़ सकें.
राज्य में जल कर की नीलामी के लिए यह नियम बना दिया गया है कि यह उसी समिति को दिया जायेगा जिसका अध्यक्ष मल्लाह होगा. इस बात को लेकर दूसरे समुदायों में रोष का माहौल भी है. लोगों का कहना है कि आखिर सामाजिक स्वामित्व वाले जल संसाधनों पर मल्लाहों का ही कब्जा क्यों हो. मगर खुद मल्लाहों के बीच इस कानून और मत्स्य समिति को लेकर अच्छी राय नहीं है.
60 साल के राम सागर सहनी कहते हैं, समिति में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है. वे लोग पैसे लेकर एक-एक पोखरा का ठीका तीन-तीन, चार-चार मल्लाह को दे देते हैं. फिर शुरू होता है, मारा-पीटी, केस-मोकदमा. गरीब आदमी इसमें कहां फंसने जाये. 30 साल का युवक नागेश सहनी जो चाकलेट-बिस्कुट की छोटा सी दुकान चलाता है, कहता है, दूसरे जात का पैसा वाला लोग किसी मल्लाह को पकड़ लेता है और जलकर खरीद लेता है. अगर फायदा होता तो क्या मल्लाह का बच्चा दुकान खोलता.
गांव के ज्यादातर मल्लाह अब खेतिहर मजदूर हो गये हैं. उनके जाल यहां-वहां फेंके नजर आते हैं. गिरजा देवी कहती हैं, कि अब क्या है इस जाल का काम. एक जगह मछली पकड़ने वाले जाल से आधा डिसमिल जमीन को घेरा गया है, वहां साग-सब्जी उगाने की कोशिश की जा रही है. एक जगह मचान पर जाल बिछा है.
अब वह बिछावन के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है. एक जगह प्लास्टिक के जाल में भूसा भरा हुआ है. उपेंद्र सहनी बताते हैं, यह सब पिछले चार-पांच साल से हो रहा है. जब से यह तटबंध बना है. मगर क्या इनको इस चुनाव से कुछ उम्मीद है. इनकी जाति के कुछ लोग पहले से राजनीति में हैं, कुछ नये-नये आ रहे हैं. एक तो पार्टी ही मल्लाहों के नाम पर बनी है. तो क्या अबकी बार, नैया पार होगी. यह सवाल सुन कर एक भी मछुआरे के चेहरे पर रौनक नहीं नजर आता.
नागेश सहनी कहते हैं, सब पैसा वाला का खेल है. इ लोग नेता बनेगा तो अपना घर भरेगा. हमलोग ऐसे भीख मांगते रहेंगे. उपेंद्र सहनी कहते हैं, एक बार एक महिला नेता इस इलाके से गुजर रही थीं. लोगों ने उन्हें अपनी समस्या बतायी तो उन्होंने कहा, वे उन लोगों का वोट पैसा देकर खरीदी हैं, काम करने का वादा करके नहीं. वे कहते हैं, अब किसने उनका भोट बेच दिया उन्हें नहीं पता. उस बार भी बिक गया. इस बार भी बिक ही जायेगा.
जब से ये लोग खेतिहर मजदूर बने हैं. स्थानीय भू-स्वामियों का दबाव भी इन पर बढ़ा है. इस दबाव ने कई दूसरी किस्म की परेशानियों को जन्म दिया है. उनमें से एक है महिलाओं का उत्पीड़न. हाल के दिनों में इस जाति की महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं.
हालांकि लोग खुल कर बात नहीं करते. दबी जुबान में स्वीकार करते हैं. एक महिला कहती हैं, 32 दांत के बीच में जीभ की तरह फंसे हैं, क्या करें. घर में शौचालय नहीं है, नाव से नदी पार करके जाना पड़ता है. दूसरी महिला कहती हैं, भूखा पेट मानता नहीं है, साग तोड़ने ही किसी खेत में घुस गये तो उसका बदला भुगतना पड़ता है. मगर विरोध भी नहीं कर पाते. साल भर की मजदूरी तो उन्हीं के खेत से मिलती है.
इसी गांव की एक महिला मीरा साहनी के बारे में कहा जाता है कि उसने इस अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की थी. गैंग-रेप के बाद उसकी हत्या हो गयी. कुछ साल पहले घटी इस घटना पर काफी बवाल हुआ था. समाजसेवियों ने इसे आंदोलन का रूप देने की भी कोशिश की थी. मगर कोई नतीजा नहीं निकला. अब गांव में कोई इस बारे में बात नहीं करना चाहता. उंची जाति के लोग कहते हैं, प्रेम प्रसंग का मामला था.
वहीं मल्लाह कहते हैं, दूसरे टाइप की औरत थी. नेता बनना चाहती थी.कुछ बाहरी लोग कहते हैं, केस मुकदमा में कुछ ले-देकर समझौता हो गया. पंचायत चुनाव में भी इस समझौते का पालन हुआ. इस चुनाव में भी पूरा गांव एक नजर आता है. कोई यह नहीं कहता, कि अच्छी महिला थी. काश आज जिंदा होती. आज जिन लोगों का नाम मल्लाहों के अगुआ के तौर पर सुनने को मिल रहा है, उनमें मीरा सहनी का भी नाम होता.