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चुनाव में करोड़ों खर्च, पर अस्पताल के लिए पैसे नहीं

पटना: लंदन विश्वविद्यालय के मानद प्रोफेसर और जाने-माने सामाजिक वैज्ञानिक जेम्स मेनर ने कहा कि भारत में लोकतंत्र का सशक्त और मौलिक रूप देखने को मिलता है. लेकिन, यहां के चुनावों में जितने रुपये खर्च होते हैं, उतना खर्च दुनिया में अन्य कहीं नहीं होता है. बिहार समेत देश के अन्य राज्यों के चुनावों में […]

पटना: लंदन विश्वविद्यालय के मानद प्रोफेसर और जाने-माने सामाजिक वैज्ञानिक जेम्स मेनर ने कहा कि भारत में लोकतंत्र का सशक्त और मौलिक रूप देखने को मिलता है. लेकिन, यहां के चुनावों में जितने रुपये खर्च होते हैं, उतना खर्च दुनिया में अन्य कहीं नहीं होता है.

बिहार समेत देश के अन्य राज्यों के चुनावों में स्थिति एक समान ही देखने को मिलती है. धन बल का प्रयोग जम कर होता है. वैज्ञानिक मेनर ने ये विचार सोमवार को आद्री के रजत जयंती समारोह में आयोजित कर्टेन रेजर व्याख्यान में रखे. वे ‘भारत के राज्य : शासन हेतु संघर्ष’ विषय पर बोल रहे थे. मेनर ने मजकिया लहजे में कहा कि भारत में चुनाव में तो काफी पैसे खर्च किये जाते हैं, लेकिन यहां के अस्पतालों को चलाने के लिए पैसे नहीं होते हैं.

उन्होंने बिहार समेत तमाम राज्यों तथा देश के राजनीतिक हालात का परिदृश्य वर्ष 1989 से 2014 तक का पेश किया. इस दरम्यान देश के राज्यों की सरकारों ने अपने स्तर पर कई सृजनात्मक कार्य किये हैं, जो दुनिया में अन्य कहीं नहीं हुए. उन्होंने उल्लेखित किया कि 2003 के बाद ऐसा करना आसान हुआ है, जब से राज्यों का राजस्व अधिक तेजी से बढ़ा, जो अब भी जारी है. राज्य सरकारों के पास खर्च करने के लिए अधिक पैसे आने लगे हैं. भारत की केंद्रीय राजसत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है.

राज्य में इसका अलग-अलग स्वरूप देखने को मिलता है. 1989 से 2014 के बीच केंद्र में किसी एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार नहीं रही. 1989 के पहले प्रधानमंत्री कार्यालय जितना इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय शक्तिशाली हुआ करता था, वह बाद के वर्षों में नहीं रहा. इसके विपरीत राज्य सरकारें ज्यादा मजबूत हुईं. इसी कारण कई राज्यों ने अपने स्तर पर सामाजिक सरोकार से जुड़ी कई बेहतरीन योजनाएं शुरू की हैं, जो बेहद लोकप्रिय भी हुईं.

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