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खाद्यान्न में सरप्लस बिहार को चाहिए बाजार

पटना: बिहार की कृषि से जुड़े इन दो तथ्यों पर गौर करें. पहला, राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए कृषि क्षेत्र केंद्रक की तरह है. दूसरा, इस क्षेत्र में लगी श्रम शक्ति को दूसरे सेक्टरों की तरह आर्थिक तौर पर लाभ नहीं मिल पाता. ये दोनों ऐसे तथ्य हैं जो खेती-किसानी की मौजूदा तसवीर और उससे […]

पटना: बिहार की कृषि से जुड़े इन दो तथ्यों पर गौर करें. पहला, राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए कृषि क्षेत्र केंद्रक की तरह है. दूसरा, इस क्षेत्र में लगी श्रम शक्ति को दूसरे सेक्टरों की तरह आर्थिक तौर पर लाभ नहीं मिल पाता.

ये दोनों ऐसे तथ्य हैं जो खेती-किसानी की मौजूदा तसवीर और उससे जुड़ी चुनौतियों को सामने ला देती हैं. इसे भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि इस क्षेत्र से तकरीबन 76 फीसदी से भी ज्यादा लोग किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं. यह रोजगार सृजित करने वाला सबसे बड़ा सेक्टर भी है. हालांकि इस क्षेत्र की राज्य सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी महज 22 फीसदी है, जो पिछले आठ-दस वर्षो में घटा है. यानी यह चुनौती बनी हुई है कि खाद्यान्न की उत्पादकता और उत्पादन में बढ़ोतरी का लाभ कृषि से जुड़े लोगों तक पहुंचे.

कृषि क्षेत्र में निवेश और उठाये गये कदमों से इस क्षेत्र की तसवीर हाल के कुछ वर्षो में सकारात्मक रूप से बदली है. गेहूं और चावल की उत्पादकता में एक सौ फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है. यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि वर्ष 2008 के बाद कृषि के क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश हुआ है. अन्यथा 1981-94 के बीच ठहराव की हालत वाली कृषि की वृद्घि दर नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौर में नकारात्मक 1.4 फीसदी हो गया था. इसमें दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौर में महज 0़ 91 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गयी. इसके पहले छठे दशक के मध्य तक बिहार की कृषि वृिद्ध दर महज चार राज्यों से ही कम था, क्योंकि भूमि सुधारों के लागू होने का सकारात्मक प्रभाव खेती पर पड़ा. भूमि सुधार का एजेंडा अभी भी अधूरा है.

हालांकि अब बिहार खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता की स्थिति से आगे सरप्लस के दौर में है. लेकिन, असली चुनौती अब सामने है. यह चुनौती है – भंडारण और कृषि उत्पादों को बाजार से जोड़ने की. सरकारी स्तर पर धान की खरीद होती है, जिसे रखने के लिए भंडार का अभाव है. खुले में महीनों धान पड़े रहते हैं. कृषि उत्पादन बाजार समिति को भंग किये जाने के बाद वैकल्पिक बाजार की संरचना अब तक खड़ी नहीं की गयी है. बिहार में उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है. खास कर दलहन, मोटे अनाज और गेहूं के मामले में. धान की उत्पादकता में बिहार ने चीन के रिकॉर्ड को तोड़ा. आलू में भी उत्पादकता दर में रिकॉर्ड वृद्धि हुई. इस उपलब्धि को सीमित क्षेत्र से निकाल कर पूरे राज्य में विस्तार देने की चुनौती बनी है.

एक अन्य समस्या सिंचाई क्षमता को बढ़ाने की है. सभी स्नेतों को मिलाकर करीब 44 लाख हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र है. कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि बिहार की भूमि (खास तौर से उत्तर बिहार की) जितनी ऊपजाऊ है, यदि सिंचाई की व्यवस्था हो, तो उत्पादन कई गुना बढ़ जायेगा. कृषि रोड मैप की अवधि 2017 में समाप्त हो रही है और नयी सरकार के सामने आगे की राह तलाशना भी एक प्रमुख एजेंडा है. कुल मिलाकर, चुनौतियों के मुकाबले उपलब्धियों का ग्राफ और मेहनत की मांग करता है. जाहिर है कि कृषि के क्षेत्र में नयी सरकार का टास्क बड़ा है.
इन पर भी काम करने की जरूरत धान खरीद में पारदर्शिता
सरकार हर साल धान की खरीद करती है. लेकिन, भुगतान और बिचौलियों के वर्चस्व को लेकर हर साल किरकिरी भी होती है. वैसे धान खरीद का मामला खाद्य एवं आपूर्ति विभाग से जुड़ा है, जो कृषि रोड मैप का एक अंग है. असली दिक्कत भंडारण की है. निजी व सरकारी क्षेत्र की भंडारण क्षमता करीब 22-23 लाख मीटरिक टन है. इस साल 30 लाख मीटरिक टन खरीद का लक्ष्य रखा गया है.
इ-किसान भवन
274 इ-किसान भवन बन कर तैयार हैं, लेकिन ज्यादातर भवनों को हस्तगत नहीं कराया गया है. कुल 534 इ-किसान भवन बनाया जाना है. जो बन चुके हैं, उनमें बिजली व पानी की समस्या है.
छोटे होते खेत, बढ़ता बोझ
कृषि भूमि का औसत आकार तेजी से छोटा हुआ है. यह एक बड़ी चुनौती है, जिसका सीधा नहीं, वैकल्पिक समाधान हो सकता है. सरकार को इस पर प्राथमिकता के आधार पर वर्क आउट करना होगा. 1995-96 में कृषि भूमि का औसत आकार 0.75 हेक्टेयर था. 2005-06 में यह 4.43 हुआ. पिछले एक दशक में यह आकार और भी छोटा हुआ है.

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