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जब जेपी से दिलीप साहब ने अंगरेजी में बोलना शुरू किया

शिवानंद तिवारी, पटना दिलीप साहब को कल पद्म विभूषण से नवाजा गया. उनके घर पर जब गृहमंत्री उनको इस अलंकरण से नवाज रहे थे दिलीप साहब को पता भी नहीं चला होगा कि उनके साथ यह सब क्या हो रहा है. जब उन्होंने पहली फिल्म की थी तब मैं एक साल का रहा होऊंगा. उनकी […]

शिवानंद तिवारी, पटना
दिलीप साहब को कल पद्म विभूषण से नवाजा गया. उनके घर पर जब गृहमंत्री उनको इस अलंकरण से नवाज रहे थे दिलीप साहब को पता भी नहीं चला होगा कि उनके साथ यह सब क्या हो रहा है.
जब उन्होंने पहली फिल्म की थी तब मैं एक साल का रहा होऊंगा. उनकी पहली फिल्म ज्वारभाटा 1944 में बनी थी. मेरा जन्म 43 के दिसंबर में हुआ था. उम्र के इस लंबे फसले के बावजूद दिलीप साहब मेरे सबसे प्रिय कलाकार थे. देवदास तो मैंने कई मर्तबा देखी होगी. लेकिन हास्य और हल्की फिल्मों में भी उनका अभिनय बेजोड़ रहा है. उनकी आजाद तो मैंने कई बार देखी हैं. मीना कुमारी भी उस फिल्म में खूब जमी हैं. दिलीप साहब के उस फिल्म में कई रूप हैं. सब एक दूसरे से जुदा-जुदा. उनमे से कौन रूप उन्नीस है और कौन बीस यह कहना कठिन है.
डायलाग बोलने का उन जैसा अंदाज मुझे किसी का नहीं लगा. निखालिस हिंदुस्तानी. लेकिन फिल्मवालों में अंगरेजी बोलने का जो रोग है, वह उस जमाने में भी था. इतनी अच्छी हिंदी बोलनेवाले दिलीप कुमार भी इसके शिकार थे. यह देखकर मुझे उनसे थोड़ी निराशा हुई थी.
वाकया यह है कि इमरजेंसी के कुछ दिनों बाद तक जयप्रकाश नारायण जी अस्वस्थता की वजह से मुंबई में ही थे. नरीमन पॉयंट पर एक्सप्रेस टॉवर का पेंटहाउस उनका ठिकाना था. जेल से छूटने के बाद उनसे मिलने मैं वहां गया था. स्टेशन से सीधे एक्सप्रेस टावर पहुंचा. उन दिनों जेपी के साथ अब्राहम हुआ करते थे. तय हुआ कि जेपी से मिलने के पहले तैयार हो जाया जाये. आधे-पौन घंटे बाद तैयार होकर बैठक खाने में पहुंचा. बैठका भरा हुआ था. जेपी बैठे थे और अधिकांश लोग खड़े थे. मैं समझ नहीं पाया कि ये कौन लोग हैं.
मैं भी उस मजमे में शामिल हो गया. उनमे सबसे ज्यादा परिचित चेहरा दिलीप साहब, मनोज कुमार, बी आर चोपडा आदि का था.
उसके कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश में भारी तूफान आया था. जान-माल की भारी क्षति हुई थी. उसीके सहायतार्थ आम लोगों से मदद मांगने फिल्मी दुनिया के लोग सड़क पर निकलने वाले थे. उसके पूर्व प्रतीकात्मक रूप से उसकी शुरुआत जेपी से करने के लिए यहां आये थे.
बी आर चोपड़ा या जीपी सिप्पी बारी-बारी से सबका परिचय उनको बता रहे थे. उसी क्रम में मुझको छोड़ मेरे बगल वाले का परिचय बताया जाने लगा. लेकिन जेपी की नजर मेरे चेहरे पर अटक गयी. मैंने देखा कि उस फिल्मी मजमा में मेरा चेहरा देखकर वे मुझे पहचानने के लिए जोर लगा रहे थे. मैंने तुरंत कहा कि हम शिवानंद हई. उसके बाद बच्चों जैसा खिलखिला कर जो वे हंसे, वह भूलने लायक नहीं है. कहा कि उहे त हम कहीं कि तू कइसे एह लोग साथे आ गईल!
परिचय के बाद गप-शप का सिलसिला शुरू हुआ. देखा कि दिलीप साहब उनसे अंगरेजी में ही बतिया रहे हैं. जेपी हा-हूं करते हिंदी में जवाब दे रहे थे.
लेकिन दिलीप साहब अंगरेजी छोड़ नहीं रहे थे. मुझे उन पर गुस्सा भी आ रहा था और तरस भी. गुस्सा इसलिए कि जो आदमी इतना बढ़िया हिंदुस्तानी बोल सकता है वह उसके मुकाबले उससे कहीं हल्की अंगरेजी में बतिया रहा है. वह भी उस आदमी से जिसकी अंगरेजी गिने-चुने लोगों जैसी होगी. उस दिन दिलीप कुमार मेरी नजरों में थोड़ा घट गये.

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