पूस की रात में ठिठुरने को छोड़ दिये हुजूर
कांपती जिंदगी. अपना घर छोड़ कुर्जी में मिली नयी जमीन पर ‘आशियाना’ ढूंढ़ते रहे बिंद वासी रविशंकर उपाध्याय पटना : रात के नौ बजे हैं, कुर्जी चौक से एक किमी उत्तर में रास्ता सुनसान और रात काली घनघोर है, लेकिन मैनपुरा मौजे की साढ़े छह एकड़ जमीन की मेड़ पर थोड़ी गहमागहमी है. यह गहमागहमी […]
कांपती जिंदगी. अपना घर छोड़ कुर्जी में मिली नयी जमीन पर ‘आशियाना’ ढूंढ़ते रहे बिंद वासी
रविशंकर उपाध्याय
पटना : रात के नौ बजे हैं, कुर्जी चौक से एक किमी उत्तर में रास्ता सुनसान और रात काली घनघोर है, लेकिन मैनपुरा मौजे की साढ़े छह एकड़ जमीन की मेड़ पर थोड़ी गहमागहमी है. यह गहमागहमी नयी बसावट की है, पर यहां प्रेमचंद के प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ के पुराने पात्र फिर से जिंदा हो गये हैं. होरी तो नहीं है, पर उन्हीं की कदकाठी वाले जगरनाथ जरूर हैं.
हां, पूस की रात है और वो भी अपने पूरे शबाब पर. जगरनाथ अपने पोतों के साथ चिह्नित जमीन पर पॉलिथीन का टेंट कस चुके हैं, एक टूटी चौकी है और उसी के चारों तरफ पतला सा टाट. उन्हें गुमान था कि यह उनके रात को आसानी से काटने में हमसफर होगा, लेकिन हाड़ कंपाने वाली पछियारी हवाओं का वे क्या करें? बिंद टोली वासियों पर कड़ाके की सर्दी में प्रशासन का कहर कुछ इस कदर टूटा है कि उनकी जान के लाले पड़े हैं.
लाख कुछ कर लें, घर छोड़ने का दुख कैसे कम हो?
प्रशासन ने भले यहां टेंट लगा दिया है, जेनरेटर भी है, बरसों से बसाये गये घर को छोड़ने का दुख कैसे कम हो. सो, बुधवार की रात यहां लगाये गये टेंट में कोई भी नहीं आया. ज्यादातर ने अपनी ठौर कहीं और ढूंढ ली है, सर्द रात का सितम कम करने के लिए अलाव का सहारा बुजुर्ग ही नहीं बच्चे और युवा भी ले रहे थे.
अलाव फिर से उन्हें आसपास के लोगों के साथ विस्थापन के साथ जोड़ रहा था. दर्द एक ही है कि इस सर्द मौसम में उन्हें विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है और इस दर्द को साझा करने कोई नहीं आया ना सरकार और ना ही उनके द्वारा चुने गये रहनुमा.