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सियासत, सरोकार और प्रकाश झा का सिनेमा

आशुतोष के पांडेय पटना : सियासत, सामाजिक सरोकार और सिनेमा का बेहतर कॉकटेल देखना हो तो प्रसिद्ध निर्देशक प्रकाश झा की फिल्मों में देखा जा सकता है. बिहार की समस्याओं को रूपहले पर्दे पर दरसाने में किसी निर्माता-निर्देशक ने रुचि दिखाई है तो वह हैं प्रकाश झा. बिहार के ही रहने वाले प्रकाश झा बिहार […]

आशुतोष के पांडेय

पटना : सियासत, सामाजिक सरोकार और सिनेमा का बेहतर कॉकटेल देखना हो तो प्रसिद्ध निर्देशक प्रकाश झा की फिल्मों में देखा जा सकता है. बिहार की समस्याओं को रूपहले पर्दे पर दरसाने में किसी निर्माता-निर्देशक ने रुचि दिखाई है तो वह हैं प्रकाश झा. बिहार के ही रहने वाले प्रकाश झा बिहार की सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर गहरी पकड़ रखते हैं. स्वयं लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं. प्रकाश झा एक बार फिर चर्चा में हैं अपनी हिट फिल्म गंगाजल के सिक्वल कहे जा रहे जय गंगाजल को लेकर. जय गंगाजल में पुलिस वाले का किरदार निभा रही प्रियंका चोपड़ा जब पर्दे पर दहाड़ती हैं कि जब खाकी का रंग सही हो न तो उसे मर्द पहने या औरत तुम जैसे नामर्दों को चुटकी में उसकी औकात दिखा देती है. प्रकाश झा की फिल्में और उनकी कहानी के आईने में बिहार की समाजिक समस्याओं के अलावा वर्तमान राजनीति के कुछ पतित चरित्रों को साफ देखा जा सकता है.

बदलाव का सिनेमा

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सियासत, सरोकार और प्रकाश झा का सिनेमा 3

प्रकाश झा के निर्देशन क्षमता का लोहा बॉक्स ऑफिस के साथ रौशनी की चकाचौंध में होने वाले पुरस्कार समारोह भी मान चुकेहैं. प्रकाश झा अपनी फिल्मों को फ्लोर पर लाने से पहले एक गहन शोध के दौर से गुजरते हैं. शोध जब पूरा हो जाता है तब एक सरोकार से जुड़ा सार्थक मुद्दा उन्हें फिल्म बनाने के लिए मिलता है. उनकी फिल्मों में दलित, सर्वहारा, दबा-कुचला और नियती से लड़ता इंसान है तो दूसरी ओर समाजिक बदलाव से पैदाहुएऐसे तत्व भी हैं जो समाज को ही गर्त में ले जाना चाहते हैं. उन्हें ऐसे फिल्मकार के रूप में देखना वाजिब होगा जो सिनेमा की ताकत को समस्याओं की तस्वीर बनाकर लोगों के सामने पेश करता हो. पर्दे का इस्तेमाल प्रकाश झा समस्याओं को बेपर्दा करने के लिए करते हैं. जमींदारी, सवर्णों की बाजीगरी और दलितों की समस्या को उन्होंने अपनी फिल्म दामुल के जरिए पर्दे पर रखा, जिसे 1984 में फिल्म फेयर और नेशनल अवार्ड भी मिला.

फिल्मों का सफर

प्रकाश झा के निर्देशन में बनी फिल्मों का सफर बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन जो भी उनके निर्देशन में बनी फिल्में हैं वह चर्चित रही हैं. जमींदारी और गंवई राजनीति को उन्होंने ‘दामुल’ के जरिए दुनिया के सामने रखा. वहीं धर्म के ठेकेदारों को पत्थर माफियाओं की सांठगांठ को ‘मृत्युदण्ड’ के जरिए दर्शाकर लोगों के मन मोह लिए. बिहार के भागलपुर में हुए अंखफोड़वा कांड से प्रेरित होकर उन्होंने तेजाब को ‘गंगाजल’ से नहला दिया. फिरौती के धंधे को रूपहले पर्दे पर ‘अपहरण’ का रूप दिया. सियासत में चलने वाले वंशवाद के विद्रूप रूप को उन्होंने फिल्म ‘राजनीति’में उजागर किया. वहीं लाल सलाम को ‘चक्रव्यूह’ के चंगुल में फंसाकर एक रोचक फंतासी बनाकर पेश किया. प्रकाश झा ने ‘आरक्षण ’ के जरिए वर्तमान सिस्टम पर प्रहार किया वहीं अब वर्दी की आग को ‘जय गंगाजल’ के जरिए पर्दे पर ला रहे हैं. कैरियर के पहले पड़ाव पर उन्होंने जो अंडर द ब्लू’ नाम से वृत्तचित्र बनायी वह भी काफी चर्चे में रही.

जीवन का सफर ‘जय गंगाजल’

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सियासत, सरोकार और प्रकाश झा का सिनेमा 4

बिहार के बेतिया के बड़हरवा गांव में जन्मे प्रकाश झा ने वर्तमान झारखंड के तिलैया से स्कूली पढ़ाई की और आगे पढ़ने के लिए दिल्ली चले गए. 1973 में फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान पुणे से फिल्म संपादन का कोर्स करने के बाद प्रकाश झा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. अपनी ज्यादात्तर फिल्मों का मध्यप्रदेश में सूटिंग करने वाले प्रकाश झा की आगामी फिल्म जय गंगाजल पर्दे पर आने से पहले विवादों में है. हालांकि प्रकाश झा ने इस फिल्म के बारे में साफ कहा कि फिल्म की कहानी पुलिसिया व्यवस्था की बदलती तस्वीर पर अधारित है. इस फिल्म को सफल फिल्म गंगाजल की अगली कड़ी मानी जा रही है. सिनेमाई पंडित मानते हैं कि प्रकाश झा अपनी किसी भी फिल्म को कमर्शियली प्रकाश पुंज में ऐसा लपेट कर पेश करते हैं कि हर वर्ग उसे देखना चाहता है. फिल्मों में वर्तमान सिस्टम की खामियों के अलावा अंदरखाने चलने वाली रियल फिल्म इनके पर्दे की फिल्म से मेल खाती है. शायद यही कारण है कि प्रकाश झा कि फिल्मों को लेकर विवाद जरूर होता है. कभी नाम को लेकर तो कभी स्थान के नाम को लेकर. फिलहाल लोगों को 4 मार्च का इंतजार है जब बसंती बहार के बीच प्रकाश झा की फिल्म का आनंद लोग उठायेंगे.




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