शराबबंदी: 30 साल बाद निकला सूरज, सालों पीने के बाद खाने का स्वाद मिला

राज्य में शराबबंदी के बाद कई कहानियां सामने आयी हैं. शराब न मिलने से कई बीमार हुए तो कई लाचार. यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो 30 साल से लगातार देसी पाउच पी रहा था. अजय कुमार ने उनसे बातचीत कर यह समझने की कोशिश की कि अब दारू नहीं मिलने पर वह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 5, 2016 7:15 AM
राज्य में शराबबंदी के बाद कई कहानियां सामने आयी हैं. शराब न मिलने से कई बीमार हुए तो कई लाचार. यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो 30 साल से लगातार देसी पाउच पी रहा था. अजय कुमार ने उनसे बातचीत कर यह समझने की कोशिश की कि अब दारू नहीं मिलने पर वह क्या सोचते हैं. अपने बारे में और इस फैसले के बारे में. पढ़िए उन्होंने जो बताया.
बैजू ठाकुर. हाल-मोकाम साठा. जिला बेगूसराय. मेरे बारे में गांव में बहुत चर्चा है कि मैं सुधर गया हूं. मैं तीस साल से पाउच (देशी दारू) पीता था. जब से दारू बंद हुआ है, तब से खाना खाने लगा हूं. दारू पीते रहने से मेरा हाथ हर समय कांपता था. जब से पीना बंद हुआ है, हाथ कांपना बंद हो गया है.
जवानी के दिनों से ही मुझे दारू पीने की आदत लग गयी थी. कमाने के लिए मैं असम गया. बंगाल में रहा. लेकिन दारू पीने की आदत छूटी नहीं. जब जवानी ढलने लगी तो अपने गांव आ गया.
अपना पुश्तैनी काम करने लगा. हजामत बनाने का काम. सुबह-सुबह अपना औजार लेकर निकले नहीं कि बाल-दाढ़ी बनवाने वाले पहुंचे जाते. उनमें से कई ऐसे थे जो मेरी मजदूरी के बदले पाउच थमा दिया करते थे. सुबह से ही पीना शुरू हो जाता था. मजदूरी में पाउच नहीं मिला था कमाई के पैसे उस पर उड़ा देता था. भगवान कसम कहता हूं, दारू के नशे में कुछ बुझाता नहीं था. क्या सही और क्या गलत. बस पीते रहते थे.
घर-परिवार से कोई मतलब नहीं रह गया था. दारू पीने से हाथ कांपता था, पर उसी में जैसे-तैसे काम करता था. हमसे परिवार के लोग दुखी थे. गांव के लोग कुछ नहीं बोलते थे. यह उनका डर था. उन्हें मालूम था कि बोलने से हम उलझ जायेंगे. झगड़ा-झंझट हो जायेगा. सांच कहते हैं, अपनी हरकतों से हम अपनी ही नजरों मे गिर गये थे.इधर, हम बहुत परेशान रहे. जो लोग मजदूरी के एवज में हमें पाउच थमाते थे, वे पैसा पकड़ाने लगे.
शुरू में हमने पाउच मांगा, तो उनलोगों ने बताया कि सरकार ने लालू जी के साथ मिलकर दारू बंद करा दिया है. शुरू-शुरू में हमें बड़ी खराब लगा. ऐसा सरकार ने क्यों कर दिया?दारू बंद हुए महीना होने को है. हम पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हैं. इसकी कसम खाकर आपको कहते हैं कि उस दिन से एक छटांक दारू नहीं मिला. नशा उतर चुका है. अब अपने समाज, अपने आसपास के लोगों को देखता हूं, उनसे बात करता हूं, तो लगता है 30 साल के बाद जिनगी में सूरज निकला है.
अपने गांव की शकुंतला भउजी (बदला हुआ नाम) की बातों से हम लज्जित हो जाते हैं. वे बताती हैं कि सालों से गांव की औरत के मुंह पर ताला पड़ा हुआ था. औरतें डरती थीं कि नशे की हालत में लोग न जाने कैसी-कैसी बात करेंगे. गाली-गलौच करते थे. भउजी कहती है कि तब औरतें कान में ठेंपा डाल लेती थीं. वे मुझे नशे के दिनों की कहानी बताती है, तो मुझे खुद से घृणा होने लगती है. ऐसा अधरम हम कर रहे थे. पाप- महापाप. यह हमने किया? छी.
गांव के लोग उन दिनों की याद दिलाते हैं. मजाक करते हैं. पर मुझे बुरा नहीं लगता. हमने इतने सालों के दौरान जो पाप किया है, वह इनकी बातों से कट जाये. इसलिए मैं चुप रहता हूं. कुछ नहीं बोलता. अपना मुंह मैंने सील लिया है. केवल अपना काम करता हूं. अभी वैष्णव पंथ के कुछ लोगों के साथ बैठा हूं. वे लोग दारू नहीं पीते. अब हम नहीं पियेंगे. मेरे जीवन में जो सूरज निकला है, उसे पर अंधेरे में नहीं जाने देना चाहते हैं.

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