जिन्होंने ठुकरा दिया था सीएम बनने का प्रस्ताव
भूपेंद्र नारायण मंडल 1967 में पहली बार सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बने. उनका कहना था कि लोकतंत्र में राजनीति अनिवार्य है. पॉलिटिक्स इज मस्ट. वह चाहते थे कि आम लोगों को राजनीति में शरीक होना चाहिए, क्योंकि इसके जरिये ही आप अपने अधिकारों को प्राप्त करते हैं. गजेंद्र प्रसाद हिमांशु 1967 में देश […]
भूपेंद्र नारायण मंडल 1967 में पहली बार सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बने. उनका कहना था कि लोकतंत्र में राजनीति अनिवार्य है. पॉलिटिक्स इज मस्ट. वह चाहते थे कि आम लोगों को राजनीति में शरीक होना चाहिए, क्योंकि इसके जरिये ही आप अपने अधिकारों को प्राप्त करते हैं.
गजेंद्र प्रसाद हिमांशु
1967 में देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी. बिहार में पार्टी के कई नेताओं की राय बनी की भूपेंद्र बाबू बिहार के मुख्यमंत्री बनें. उनसे आग्रह भी किया गया. उन दिनों वह राज्य सभा के सदस्य थे. उन्होंने मुख्यमंत्री बनने से इनकार कर दिया और कहा कि जो सदन का सदस्य नहीं है उसे मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहिए. यह गलत परंपरा की शुरुआत होगी और नैतिकता एवं सिद्धांत की हत्या होगी. उनका कहना था कि जो व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं है वह सदन का नेता कैसे होगा? संविधान में इस बारे में मत बहुत स्पष्ट नहीं है.
फिर भी, उनका कहना था कि विशुद्ध राजनीति के लिए संविधान की त्रुटि का लाभ व्यक्ति या जन प्रतिनिधि को नहीं उठाना चाहिए. ऐसे सद्धिांतवादी और नैतिकतावादी थे भूपेंद्र नारायण मंडल. मंडल का जन्म मधेपुरा जिले के रानी पट्टी गांव के एक जमींदार परिवार में 01 फरवरी, 1904 को हुआ था. उन्होने भागलपुर के टीएनजे कॉलेज (जिसका नाम बाद में बदलकर टीएनबी कॉलेज, भागलपुर हो गया) से स्नातक और पटना वश्विवद्यिालय से कानून की डिग्री प्राप्त की थी. वे विद्यार्थी जीवन में ही गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े हुए थे. भारत छोड़ो आंदोलन में मधेपुरा कचहरी पर इन्होंने यूनियन जैक उतार कर भारत का झंडा फहारा दिया था, जबकि झंडा फहराने के अपराध में उन दिनों सूट वारंट था.
आजादी के बाद जब देश में संसदीय लेाकतंत्र कायम हुआ तो उसमें भूपेंद्र नारायण मंडल लोकसभा एवं राज्य सभा के सदस्य चुने गये. 1957 में सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा के सदस्य चुने गये. 1967 में पहली बार सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बने. उस समय राजनीति का पतन इतना अधिक नहीं हुआ था.
उनका कहना था लोकतंत्र में राजनीति अनिवार्य है. पॉलिटिक्स इज मस्ट. वह चाहते थे कि आम लोगों को राजनीति में शरीक होना चाहिए, क्योंकि इसके जरिये ही आप अपने अधिकारों को प्राप्त करते हैं. डॉ राम मनोहर लोहिया ने जब अलग सोशलिस्ट पार्टी का निर्माण 1954 में किया था तो उसमें भूपेंद्र बाबू की अहम भूमिका थी.
मंडल केवल सैद्धांतिक रूप से गरीबों और बेरोजगारों के हक की लड़ाई नहीं लड़ते थे, बल्कि अपने जीवन की कार्यशैली में भी इसका बखूबी पालन करते थे. वह सोशलिस्ट पार्टी को मजबूत आधार देने के लिए बराबर लगे रहे. पुराने सहरसा जिला पूर्णिया और उत्तर बिहार में तो उनके अनेक बड़े और प्रतिभाशाली नेता सोशलिस्ट पार्टी में हुए जो भूपेंद्र बाबू को आदर्श नेता के रूप में देखते थे. एमएलए रहते हुए भी वह बैलगाड़ी और पैदल यात्रा करते थे.
मंडल डॉ लोहिया और महात्मा गांधी के विचारों से लैस थे. गांधी जी स्वराज के माध्यम से जनता को
सता का नियमन तथा नियंत्रण करने की अपनी क्षमता का विकास करने की वह शिक्षा देते थे.
-लेखक पूर्व उपाध्यक्ष, बिहार विधान सभा एवं पूर्व मंत्री, बिहार सरकार हैं