बेहतर छवि के लिए शुद्ध हिंदी के जानकार शिक्षक जरूरी
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक दी प्रदेश होने के बावजूद बिहार के अधिकतर छात्रों की हिंदी कमजोर रहती है. यहां कम ही लोग उच्चारण और व्याकरण का ध्यान रखते हैं. ऐसी हालत न सिर्फ स्कूलों की है,बल्कि कॉलेजों की भी है. हालांकि इस बीच भी इक्के-दुक्के अच्छे उच्चारण वाले हिंदी के जानकार छात्र और शिक्षक जहां-तहां […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
दी प्रदेश होने के बावजूद बिहार के अधिकतर छात्रों की हिंदी कमजोर रहती है. यहां कम ही लोग उच्चारण और व्याकरण का ध्यान रखते हैं. ऐसी हालत न सिर्फ स्कूलों की है,बल्कि कॉलेजों की भी है.
हालांकि इस बीच भी इक्के-दुक्के अच्छे उच्चारण वाले हिंदी के जानकार छात्र और शिक्षक जहां-तहां मिल जाएंगे. सारण जिले के जिस हाई स्कूल में मैं पढ़ता था,उसमें उत्तर प्रदेश के एक योग्य शिक्षक थे. उनका उच्चारण भी अन्य स्थानीय शिक्षकों से बेहतर था. उस शिक्षक के कारण मेरी भी हिंदी थोड़ी सुधरी. कुल मिला कर स्थिति यह है कि खराब हिंदी के कारण बिहार से बाहर बिहारियों की छवि खराब होती है.
हालांकि बिहारियों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि इस राज्य के अधिकतर हिंदी शिक्षकों का भाषा पर नियंत्रण नहीं है. राज्य शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद ने हाल में शिक्षक दक्षता परीक्षा आयोजित की. यह अच्छी पहल है. वह तो सामान्य शिक्षकों के लिए है. पर सवाल है कि किस तरह बिहार में ऐसे हिंदी शिक्षकों की संख्या बढ़ाई जाए जो हिंदी शुद्ध लिख-बोल सकते हों.
शिक्षकगण कक्षाओं में खुद शुद्ध हिंदी बोलेंगे तभी विद्यार्थियों का उच्चारण भी बेहतर होगा. दरअसल, बिहार के कम ही घरों में हिंदी बोली जाती है. किसी घर की बोली भोजपुरी है तो किसी की मैथिली या मगही. विद्यार्थीगण तो स्कूल-कॉलेजों में ही शुद्ध हिंदी सीख सकेंगे. इसके लिए विशेष प्रयास जरूरी है. बिहार की छवि का सवाल जो है!
ऐसे पहचान हो अयोग्य शिक्षकों की
कुछ साल पहले प्राप्तांकों के आधार पर शिक्षकों की हुई बहाली ने स्थिति को और भी खराब कर दिया है. जहां लालकेश्वर और बच्चा राय जैसे छोटे-बड़े शिक्षा माफिया वर्षों से पल रहे हों, वहां मार्क्स के आधार पर शिक्षकों की बहाली बिहार सरकार का एक भूल थी. उस भूल को सुधारने की सरकार कोशिश कर रही है. हालांकि उस कोशिश को भी विफल कर देने वाली शक्तियां अब भी सक्रिय हैं. उस कोशिश की सफलता में तो समय लगेगा.
फिलहाल हिंदी सुधारने की जरूरत की चर्चा कर ली जाए. एक शिक्षाविद् के अनुसार बिहार सरकार एक उपाय कर सकती है. वह सौ हिंदी शिक्षकों को एक हॉल में बैठाए. संबंधित जिलाधिकारी और एसपी की उपस्थिति में हिंंदी की सौ पंक्तियों का डिक्टेशन उन्हें दे दिया जाए. उन पर सौ अंक रखे जाएं. उसी हॉल में ही तत्काल उत्तर पुस्तिकाओं की जांच भी हो जाए. यदि शिक्षक सौ में से कम से कम 51 अंक भी प्राप्त कर लें तो उन्हें शिक्षक रहने दिया जाए. उन्हें अपनी हिंदी बेहतर बनाने की हिदायत भी मिल जाए.
बाकी शिक्षकों को सरकार के ही अन्य किन्हीं समतुल्य कामों में लगा दिया जाए. क्योंकि किसी की नौकरी लेना ठीक नहीं. उनके भी बाल-बच्चे हैं. इस तरह सौ-सौ के बैच में लगातार तब तक दक्षता जांच परीक्षाएं हों जब तक सारे शिक्षकों को कवर न कर लिया जाए. अगली पीढ़ियों को शिक्षा के मामले में बर्बाद हो जाने से बचाने के लिए बड़े अफसरों को इस बुनियादी काम के लिए कुछ समय निकालना ही होगा. डीएम-एसपी की उपस्थिति के कारण कदाचार नहीं हो सकेगा. सत्ताधारी दलों का सामाजिक न्याय का नारा है.
इस दिशा में उनकी सरकार ने कई अच्छे काम भी किए हैं. अच्छी शिक्षा सशक्तीकरण के लिए अधिक जरूरी है. वैसे भी अधकचरी और अनुपयोगी शिक्षा देकर किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार को अगली पीढ़ियों को बर्बाद करने का अधिकार नहीं है. याद रहे कि सरकारी स्कूलों में गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थी ही अधिक जाते हैं. उन्हें बेहतर शिक्षा दिये बिना उन्हें समाज में आगे कैसे लाया जा सकेगा ?
तीसरे सदन का सुझाव
किसी दल ने संविधान विशेषज्ञ डॉ.सुभाष कश्यप को अब तक संसद के किसी सदन का सदस्य बनाने की जरूरत नहीं समझी है. यही हाल समाजसेवी और लोकसत्ता पार्टी के प्रधान जय प्रकाश नारायण का है. विधायक के रूप में आंध्र प्रदेश में जयप्रकाश नारायण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
अब वह विधायक भी नहीं हैं. वह आइएएस अफसर रह चुके हैं. दरअसल राज्य सभा और विधान परिषद की कल्पना संविधान निर्माताओं ने कश्यप और नारायण जैसे लोगों को ध्यान में रखा कर ही की थी. कश्यप और नारायण जैसे अच्छी मंशा वाले देश में और भी अनेक काबिल लोग उपलब्ध हैं.
ऐसे लोगों की उपेक्षा करके आज उच्च सदनों की जो हालत नेताओं ने बना रखी है,उस स्थिति में सुधार की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. नेताओं की भी अपनी मजबूरियां हैं. दरअसल, अपवादों को छोड़ दें राज्य सभा और विधान परिषदें हारे हुए नेताओं और धनाढ्य लोगों की शरणस्थली बन गयी हैं. एक बुद्धिजीवी ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि क्यों नहीं तीसरे सदन का निर्माण किया जाए ताकि सुभाष कश्यप और जय प्रकाश नारायण जैसे लोगों को स्थान मिल सके? क्योंकि राज्य सभा और विधान परिषदों के मौजूदा स्वरूप को तो बदला नहीं जा सकता जब तक सुप्रीम कोर्ट इसमें कारगर हस्तक्षेप न करे.
एक सुझाव यह भी !
सोनिया गांधी के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने कई महत्वपूर्ण विधेयकों का प्रारूप तैयार किया था.उनमें सूचना अधिकार कानून, शिक्षा अधिकार कानून, रोजगार गारंटी योजना कानून और खाद्य सुरक्षा योजना कानून के प्रारूप शामिल हैं. यदि मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में महा घोटालों की बाढ़ नहीं आती और कांग्रेस एकतरफा तथा ढ़ोंगी धर्म निरपेक्षता की नीति पर नहीं चल पड़ती तो नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने का मौका शायद ही मिलता.
4 जून, 2004 को गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में जाने माने अर्थशास्त्री, अच्छी मंशा वाले सामाजिक कार्यकर्ता और अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल किए गए थे. उस सलाहकार के सदस्यों में डॉ एमएस स्वामीनाथन, डॉ एनसी सक्सेना, डॉ जीन ड्रेज, अरुणा राय, डॉ माधव गाडगिल, लोकसत्ता के जय प्रकाश नारायण और सीएसडीएस के योगेंद्र यादव थे.
एक सलाह यह भी है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को पुनर्जीवित और विस्तारित करके उसे संसद के तीसरे सदन का स्वरूप दिया जा सकता है. लोकसभा और राज्यसभा पर हो रहे खर्चों में थोड़ी कटौती करके तीसरे सदन का आर्थिक बोझ उठाया जा सकता है. सिर्फ सांसद क्षेत्र विकास फंड को समाप्त करके तीसरे सदन का खर्च उठाया जा सकता है. वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक सुधार समिति ने कई साल पहले सांसद फंड की समाप्ति की सिफारिश की थी.
और अंत में
सीपीआई के राज कुमार पूर्वे ने बिहार विधान सभा में एक प्रस्ताव रखा था. वह प्रस्ताव बिहार विधान परिषद को समाप्त करने के लिए था. तीन अप्रैल, 1970 को वह प्रस्ताव पास भी कर दिया गया. पर, चार दिसंबर 1970 को विधान सभा ने पूर्वे के प्रस्ताव को निरस्त करने का प्रस्ताव पास कर दिया. याद रहे कि 16 फरवरी, 1970 से 22 दिसंबर, 1970 तक कांग्रेस के दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में मिलीजुली सरकार काम कर रही थी.
जिस सदन को समाप्त करने के लिए पूर्वे ने प्रस्ताव रखा था, सन् 1972 में पूर्वे जी उसी सदन के सदस्य बन गए. पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और पप्पू यादव राज्यसभा और विधान परिषद को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं. भविष्य कौन जानता है! क्या पता किसी दिन मांझी जी को भी उच्च सदन ही शरण लेनी पड़े!