माओवादी पहचान वाले गया के खेतों में चल रहा अनूठा प्रयोग

अजय कुमार पटना : गया में केवल माओवाद की धमक ही नहीं सुनायी देती, प्याज की फसल भी होती है, जो कोलकाता, दिल्ली व मुंबई के बाजार को लुभाया है. नासिक के प्याज को टक्कर देता यहां का प्याज किसानों की जिंदगी में नया मौका लेकर आया है. इससे उनकी कमाई बढ़ गयी है. खेती-किसानी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 24, 2016 7:20 AM
अजय कुमार
पटना : गया में केवल माओवाद की धमक ही नहीं सुनायी देती, प्याज की फसल भी होती है, जो कोलकाता, दिल्ली व मुंबई के बाजार को लुभाया है. नासिक के प्याज को टक्कर देता यहां का प्याज किसानों की जिंदगी में नया मौका लेकर आया है. इससे उनकी कमाई बढ़ गयी है. खेती-किसानी को लेकर उनमें नया भरोसा पैदा हुआ है.
बड़गांव से उठी बदलाव की बयार : बदलाव की यह कहानी गया से कोई 35 किलोमीटर दूर बड़गांव से शुरू होती है. गया से टेकारी और टेकारी से सात किलोमीटर दूर है यह गांव. यहां के लोग अब धान-गेहूं के अलावा प्याज की खेती करने को तैयार हैं. सिर्फ इसी गांव के नहीं, बल्कि लोदीपुर, शाहगंज, दौलतपुर, धनछुही, निसुरपुर, कैलाशपुर, केर और कोरमा गांव के किसानों तक बड़गांव की कहानी पहुंच चुकी है और इस साल वे भी प्याज उगायेंगे.
क्या है बड़गांव की कहानी : पिछले साल यहां के 15 किसानों ने करीब 20 एकड़ में प्याज की खेती की. सौ टन पैदावार हुई. मुनाफा धान-गेहूं की तुलना में करीब-करीब चौगुना रहा. किसान नवीन कुमार कहते हैं, हमें नया जीवन मिल गया है. हमने सोचा भी नहीं था कि प्याज से हमारी किस्मत खुलनेवाली है.
इसने मुरदे में जान फूंक दी है. नवीन ने आठ बीघे में प्याज रोपा था. इस बार ज्यादा रकबा में खेती करने वाले हैं. इसी तरह दूसरे किसान भी अधिक क्षेत्र में खेती करेंगे. दरअसल, किसानों को भरोसा नहीं था कि गया में इतना रसीला और आकार में नासिक के उत्पाद को मात देने वाला प्याज होगा. अब उनकी आशंका जाती रही.
खुद के भरोसे बढ़ाएं कदम : पिछले साल गांव के करीब 40 किसान प्याज की खेती करने को तैयार हुए थे. मगर बीज की खरीद खुद के पैसे से करने की बात सामने आय, तो वे पीछे हट गये. उन्हें मुफ्त में बीज मिलने की उम्मीद थी.
नौजवान किसान रवींद्र बताते हैं : पैसे की बात सुन कर ज्यादातर किसान पीछे हट गये. केवल 15 किसान रहे गये. किसी ने एक बीघा, तो किसी ने चार बीघे में खेती की. फसल तैयार हुई तो गांव-जवार में बात तेजी से फैल गयी.
युवा किसान शशि रंजन कहते हैं : किसान सब्सिडी के चक्कर में खुद को बरबाद कर रहे हैं. बेहतर है कि इससे वे बाहर निकलें और खुद पर भरोसा करते हुए नकदी फसल की दिशा में कदम बढ़ाएं.
इस बार हजार टन उत्पादन की है तैयारी : इस बार किसानों ने एक हजार टन प्याज के उत्पादन की तैयारी की है. किसानों के साथ काम करने वाले मयंक जैन कहते हैं: न सिर्फ स्थानीय स्तर पर मांग बढ़ी है, बल्कि कोलकाता, मुंबई और दिल्ली के खरीदारों ने भी दिलचस्पी दिखायी है. यहां के प्याज का सैंपल देख कर उनकी रुचि बढ़ी. वे इसे खरीदने को तैयार हैं. प्याज से कमाई देख कर किसान सुरेंद्र वर्मा कहते हैं: इस बार हमने भी प्याज की खेती करने का फैसला किया है.
बाजार में बनी प्याज से पहचान : गया से लेकर टेकारी के बाजार में बड़गांव के प्याज की पहचान पहली ही फसल में बन गयी.
टेकारी मंडी में कारोबारी अर्जुन कहते हैं : प्याज बड़े साइज का था और उसमें काफी रस भरा हुआ था. हमने आकार में अब तक छोटे प्याज ही देखे थे. यह हमारे लिए भी हैरान करने वाली बात थी. प्याज की क्वालिटी इतनी अच्छी थी कि प्रति क्विंटल किसानों को हमने सौ रुपये ज्यादा दिये. उनका कहना था कि मांग इतनी थी कि हम उसकी भरपाई नहीं कर पाये.
मजदूरों को मिला काम : प्याज की खेती से गांव के मजदूरों को भी फायदा हुआ. काम का मौका बढ़ा, तो उनकी आमदनी भी बढ़ी. मयंक जैन दावा करते हैं कि मजदूरों को 800 दिन से ज्यादा का रोजगार मिला. यह किसी भी गांव में मनरेगा से मिलने वाले रोजगार की तुलना में बहुत अधिक है.
अब सहजन, पपीता और कोहड़े की खेती : राजेश सिंह, विकास और जयंत ने बताया कि किसानों को सहजन, पपीता और कोहड़ा लगाने के बारे में बता रहे हैं. बाजार में इसकी मांग को देखते हुए वैज्ञानिक तरीके से हम इसकी खेती करना चाहते हैं.
नासिक को टक्कर दे रहा गया का प्याज किसानों की आमदनी चार गुनी बढ़ी
कौन हैं मयंक
मूल रूप से दिल्ली के रहने वाले मयंक जैन ने नेताजी सुभाष प्रौद्योगिकी संस्थान से स्नातक किया और उसके बाद एक कंपनी में बतौर पेटेंट एनालिस्ट के रूप में काम किया. पर उन्होंने बिहार में आकर काम करने का फैसला किया. उन्होंने माइक्रोएक्स फाउंडेशन नाम से एक संस्था बनायी.
यह संस्था ही किसानों को पारंपरिक खेती से अलग हट कर काम करने को प्रेरित कर रही है. मयंक बताते हैं: मिट्टी जांच से लेकर बीज उपलब्ध कराने में हम पुल की भूमिका अदा करते हैं. उत्पाद को बाजार तक पहुंचाने में हम सहयोगी होते हैं ताकि किसानों की हकमारी न हो जाये.

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