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बेटा तड़प रहा था, वे 100-100 के नोट मांग रहे थे

दक्षा वैदकर पटना : वो हलवाई था. शादियों में मिठाई बनाने के लिए अक्सर लोग उसे बुलाया करते थे. जब भी वे उससे पूछते, ‘मिठाई बनाने का कितना रुपया लोगे?’ वह मुस्कुरा कर कहता, ‘पइसा में क्या रखा है सर जी… उ कहां भागे जा रहा है? पहले काम तो होने दीजिए. उ ज्यादा जरूरी […]

दक्षा वैदकर
पटना : वो हलवाई था. शादियों में मिठाई बनाने के लिए अक्सर लोग उसे बुलाया करते थे. जब भी वे उससे पूछते, ‘मिठाई बनाने का कितना रुपया लोगे?’ वह मुस्कुरा कर कहता, ‘पइसा में क्या रखा है सर जी… उ कहां भागे जा रहा है? पहले काम तो होने दीजिए. उ ज्यादा जरूरी है. मिठाई अच्छी लगेगी, तो जितना आपको सही लगे, दे दीजिएगा.’ उस भोले-भाले हलवाई को क्या पता था कि ‘पइसा’ में ही सब कुछ रखा है, तभी तो जब उसे अस्पताल में भरती किया गया, तो नाजुक हालत होने के बावजूद डॉक्टरों ने इलाज शुरू नहीं किया. कहा, पहले एक लाख रुपये (भरती करने के 50 हजार और आइसीयू के 50 हजार) जमा करो, तभी इलाज शुरू होगा.
बेटे की गंभीर हालत देख बुजुर्ग पिता जैसे-तैसे 50 हजार रुपये जुटा कर अस्पताल पहुंचे, तो टीवी पर न्यूज देख कर अस्पतालवालों ने कह दिया कि ये नोट नहीं चलेंगे. 100-100 के नोट लाओ. भाग-दौड़ का सिलसिला फिर शुरू हो गया. इधर बेटा इलाज के लिए तड़प रहा था, उधर पिता रिश्तेदारों, दोस्तों व बाजार से 100-100 के नोटों की मिन्नत कर रहे थे. जैसे-तैसे दोबारा 50 हजार रुपये (100-100 के नोट) जमा किये, तब जा कर इलाज शुरू हुआ. मुंह में नली-वली डालते व बेटे को दर्द से कराहता देख सभी घबरा गये कि यह कैसा इलाज चल रहा है?
डॉक्टर साहब ने तभी बेटे को उनकी नजरों से हटा कर आइसीयू में भरती कर दिया और कहा कि बाकी रुपये तुरंत जमा कर दो. बस उसी वक्त घरवालों ने बेटे को आखिरी नजर देखा था. पिता फिर से रुपये इकट्ठा करने में जुट गये और उधर डॉक्टरों ने कह दिया कि आपका बेटा गुजर गया. घरवालों ने खूब मनाया कि हमें उसे देख तो लेने दीजिए, लेकिन अस्पतालवालों ने कहा, पूरा बिल (बाकी 88 हजार रुपये) भर दो, फिर सीधे शव ले जाना. छह घंटे की मेहनत के बाद पिता रुपये, तो ले आये, लेकिन 500-1000 के नोट थे. अस्पताल वाले पैसे ले नहीं रहे थे. खूब हंगामा हुआ. बात पुलिस तक जा पहुंची. जब पुलिस और मीडियाकर्मियों ने हस्तक्षेप किया, तो वे उन पैसों को लेने के लिए मान गये और शव सौंपा.
यह कहानी है 28 वर्षीय धानु मेहता की. वह अपनी पत्नी पूजा, बुजुर्ग माता-पिता और दो बेटियों के साथ एक कमरा किराये से लेकर मुसल्लहपुर में रहता था. वह हलवाई का काम करता था और पिता की सब्जी की दुकान थी. घर जैसे-तैसे चल रहा था, लेकिन वे सभी खुश थे. धानु को उम्मीद थी कि अभी शादी का सीजन आनेवाला है, तो कई लोग मिठाई बनाने बुलायेंगे और घर के हालात सुधरेंगे. उन पैसों का उपयोग वह घर खर्च में करेगा और बेटियों के लिए सामान खरीदेगा. उनके भविष्य के लिए कुछ रुपये जोड़ेगा. वह अपनी दोनों बेटियों अनोखी (पांच साल) और आयूषी (तीन साल) को बेटों की तरह खूब पढ़ाना-लिखाना चाहता था.
उन्हें हर सुविधा देना चाहता था. उन्हें कहता था कि खूब पढ़ना, स्कूल में टॉपर बनना, तुम्हारे नाम और फोटो अखबार में आने चाहिए. लेकिन, उसे नहीं पता था कि कुछ लोगों की असंवेदनशीलता की वजह से उसकी खुद की जान चली जायेगी और उसकी मौत की खबर इस तरह अखबारों में छापी जायेगी. आज स्थिति यह है कि पूरा घर अंधेरे में डूब गया है. सभी की आवाज रो-रोकर बैठ गयी है. आंखें पथरा गयी हैं. बड़ी बेटी अनोखी को जब से पता चला कि है कि पापा अब कभी वापस नहीं आयेंगे, उसका शरीर बुखार से तप रहा है. छोटी बेटी आयूषी ये सब समझ नहीं पा रही, लेकिन मां को रोता देख वह भी रोने लगती है. आसपास के लोग ही उसे गोद में ले-लेकर चुप करा रहे हैं.
कर्ज में डूब गया परिवार
यहां एक तरफ परिवार ने अपना इकलौता बेटा खो दिया है, वहीं दूसरी तरफ अस्पताल का बिल एक लाख 38 हजार चुकाते-चुकाते परिवार कर्ज में डूब गया है. पूजा को अब बस यही डर है कि बुजुर्ग ससुर सब्जी बेच-बेच कर अकेले घर की चार महिलाओं का पालन-पोषण कैसे करेंगे? कर्ज कैसे चुकायेंगे. वह खुद भी बेटे के गुजर जाने से टूट गये हैं. रो-रो कर पूजा की आवाज बैठ गयी है, लेकिन वह फिर भी धीमी आवाज में हिम्मत कर कहती है, मुझे ही अब बेटियों को पढ़ाना है. अब मैं घर का बेटा बनूंगी. मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूं. दूसरी-तीसरी पढ़ी हूं. आप लोग ही मुझे नौकरी दिला दीजिए. सरकार को बोलिए कि अस्पतालवालों को उनके किये की सजा दे.
झूठ बोला है अस्पतालवालों ने
मृत धानु की मां सिसकियां भरते हुए कहती हैं, लोगों ने कहा था कि डेंगू का इलाज हो सकता है. आपका बेटा तो वैसे भी हट्टा-कट्टा, लंबा-चौड़ा है. बड़का अस्पताल में जाओगे, तो बेटा जरूर ठीक हो जायेगा. सभी ने कहा कि पारस हॉस्पिटल बहुत बड़ा है. फोर स्टार है. वहां सारी सुविधाएं हैं. वहीं जाओ. हम भी वहां चले गये. हमको क्या पता था कि इतना बड़ा अस्पताल पैसों के लिए इतना कठोर दिल हो जायेगा कि इलाज ही शुरू नहीं करेगा. ज्यादा-से-ज्यादा पैसा लूटने के लिए झूठ बोलेगा.
पिता टूनटून मेहता कहते हैं, हमको पता है कि हमारा बेटा उसी वक्त मर गया था, जब इलाज शुरू हुआ. लेकिन, ये अस्पतालवाले झूठ-मूठ उसको आइसीयू में ले गये, ताकि हमारी नजरों से उसे दूर कर सकें. उन्होंने बेटे को देखने तक नहीं दिया. यह बोल कर रोक दिया कि वेंटिलेटर लगा है. अस्पताल में विजिटर्स का पास क्यों दिया, जब देखने ही नहीं देना था? इस अस्पताल के खिलाफ जरूर एक्शन लेना चाहिए. अब हमको लोग आकर बोल रहे हैं कि पहले भी इस अस्पताल में ऐसा सब हो चुका है. अगर हमको पहले पता होता, तो हम वहां कभी नहीं जाते. छोटे अस्पताल में जाते, कम-से-कम बेटा जिंदा तो रहता. हमको क्या पता था कि यह सिर्फ नाम का ‘पारस’ है. इसे छूकर जीवन धन्य नहीं, बरबाद हो जायेगा.
शिकायत करें, होगा एक्शन
मरीज की मौत के बाद उनके परिजन थाना आये थे. मौखिक रूप से उन्होंने पारस हॉस्पिटल की शिकायत की. उन्होंने बड़े नोट के बदले शव नहीं देने की बात कही. लेकिन, उन्होंने लिखित में शिकायत नहीं की है. अगर शिकायत होगी, तो हम जरूर कार्रवाई करेंगे.
वीरेंद्र यादव, थानाप्रभारी, शास्त्रीनगर
पहले से रेफर था मरीज
मरीज की हालत पहले से ही काफी खराब थी. वह किसी निजी अस्पताल से रेफर होकर आया था. उसका बचना मुश्किल था. अगर उसे सीधे पारस अस्पताल लाया जाता, तो शायद जान बच जाती. पहले से मौत की बात गलत है.
डाॅ तलत हलीम, मेडिकल सुप्रीटेंडेंट व कार्यकारी यूनिट हेड, पारस हॉस्पिटल

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