जयंती पर विशेष : स्वामी विवेकानंद, आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक
प्रो मकरंद आर परांजपे जेएनयू आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है. आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक विवेकानंद ने एक हारे हुए और मरणासन्न समाज में आत्मसम्मान और उत्साह की भावना का संचार किया था. पढ़िए उन पर नयी रौशनी डालती यह रिपोर्ट. आज विवेकानंद की 154वीं जयंती है और मैं इस बात को […]
प्रो मकरंद आर परांजपे
जेएनयू
आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है. आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक विवेकानंद ने एक हारे हुए और मरणासन्न समाज में आत्मसम्मान और उत्साह की भावना का संचार किया था. पढ़िए उन पर नयी रौशनी डालती यह रिपोर्ट. आज विवेकानंद की 154वीं जयंती है और मैं इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हूं कि उनके बारे में लिखने की शुरुआत करने के लिए संन्यासी शब्द का इस्तेमाल करना उचित है या नहीं. संन्यासी का अर्थ एकांतप्रिय होता है, क्योंकि इस शब्द का संबंध मुनि और मौन दाेनों से है. ये दोनों प्राचीन संस्कृत शब्द हैं.
नयी व्यवस्था
सच तो यह है कि स्वामी एकांतप्रिय नहीं थे, हालांकि उन्होंने अपना लंबा समय भारत भ्रमण करते हुए अकेले ही बिताया था. यह 11 सितंबर, 1893 को शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में उनके शामिल होने से पहले का समय था. वे कभी भी मौन या शांत नहीं रहते थे. उनके द्वारा किये गये संपूर्ण कार्यों को नौ खंडों में समेटा गया है. उन्होंने इतना सारा कार्य 40 साल से कम उम्र में ही पूरा कर लिया था, क्योंकि लगभग 40 साल में मृत्यु हो गयी थी.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सबसे ज्यादा सक्रिय व ऊर्जावान व्यक्तियों में विवेकानंद भी एक थे. विवेकानंद ने अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात संन्यासियों के लिए एक नयी व्यवस्था तैयार की थी. बेस्टसेलर पुस्तक, ‘बीइंग हिंदू: ओल्ड फेथ, न्यू वर्ल्ड एंड यू’ के लेखक हिंडोल, उन हठधर्मी भारतीय युवाओं के समूह से ताल्लुक रखते हैं, जो वाम-उदारवादी संस्थानों की हठधर्मिता को भी उलट रहे हैं. इसी क्रम में वे अपने माता-पिता की पुरातनपंथी बातों और अपने पूर्वजों के विश्वासों पर सवाल भी खड़े करते हैं.
गिब्बन की बेहतरीन पुस्तक ‘डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ द रोमन एंपायर’ का फिर से अध्ययन करने वाले डेनियल बूर्सटिन का कहना है कि हिंडोल की यह पुस्तक गिब्बन की इस पुस्तक से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. विवेकानंद पर हिंडोल की इस पुस्तक में उनके जीवन से जुड़ी उन बातों को भी समाहित किया गया है, जो दूसरी पुस्तकों में नदारद है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि खुद के जीवन में स्वामी की बहुत ज्यादा दखल होने के बावजूद इस तरह का लेखन हिंडोल के लिए संघर्षपूर्ण रहा होगा. हिंडोल का परिवार रामकृष्ष्ण का भक्त है, ऐसे में बचपन से ही उन पर इस मिशन में शामिल होने का दबाव रहा है. विवेकानंद के बारे में अपनी धारणाओं को तोड़ कर जिस तरह का लेखन करने का प्रयास हिंडोल ने किया है और उसमें वे सफल रहे हैं, वह सराहनीय है. उन्होंने अपने खुद के विश्वासों और पूरे विश्व में विवेकानंद की विरासत के साथ संघर्ष करके उनके जीवन के अलग पक्षों को रेखांकित किया है.
जीवनकाल में महान बन जाना
हिंडोल के लेखन का नतीजा यह है कि एक व्यक्ति, जो अपने जीवनकाल में ही महान बन गया था, उसकी विश्वसनीय और वास्तविक छवि लोगों के सामने आयी है. हिंडोल के मुताबिक, हिंदू होने का मतलब धर्मांध या मूर्ख होना नहीं है, बल्कि अपना अस्तित्व बनाना और उसमें निहित अच्छाई की सराहना करने के साथ ही कमियाें की तरफ भी ध्यान देना है.
अब वापस विवेकानंद की ओर आते हैं, जिन्होंने महासागर के उस पार जाकर तीन महाद्वीपों की आत्मा को छुआ था. विवेकानंद के बारे में जो बातें हमें याद रखनी चाहिए, वह यह कि किस तरह से वे भारत में बदलाव लाये थे. उन्होंने हमें सिखाया था कि अब हमें कमजोर या असहाय बन कर नहीं जीना है, बल्कि अमर आत्मा की तरह अपनी आंतरिक शक्ति काे जगाना है.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि वेद का उनका सबसे पसंदीदा उद्धरण – ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ था. उन्होंने इसे ऐसे अनुदित किया था- उठो, जागो, तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते. असल में यह बात हमें किसी ज्ञानी व्यक्ति से उच्चस्तरीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करती है.
विवेकानंद आधुनिक भारत निर्माताओं में से एक थे. उन्होंने एक हारे हुए और मरणासन्न समाज में आत्मसम्मान और उत्साह की भावना का संचार किया था. हजार साल तक विदेशी शासकों द्वारा देश को कमजोर किये जाने के कारण हम सभी भारतीय निःसहाय और हताश थे. लेकिन, ये विवेकानंद ही थे, जिन्होंने हमें स्व-जागरूकता का मंत्र दिया. व्यावहारिक वेदांत का उनका संदेश सरल था : सब आत्मा को पवित्र मानो, खुद के बूते अपने जीवन की पवित्रता पहचानने की कोशिश करो और इस क्रम में समाज को बदल डालो.
अमेरिका और यूरोप में अपने कार्यों द्वारा उन्होंने ऐसा संभव भी कर दिखाया था. यहां उन्होंने सिर्फ अध्यात्मिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सांसारिक स्तर पर भी सफलता प्राप्त की थी.
अनुभव
हमें विवेकानंद के अनुभवाें से पश्चिम का विरोध नहीं करना भी सीखना चाहिए. पश्चिम, खासकर अमेरिका में उनके अद्भुत सहयोगी थे, बिना अपने उन सहयोगियों के विवेकानंद का महान व्यक्तित्व सामने आ ही नहीं सकता था. वास्तव में बिना उनकी स्वीकार्यता और समर्थन के उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता, जो उन्हें पश्चिम में मिला.
यह उदार और खुले मन वाला, नये विचारों को ग्रहण करने वाला पश्चिम ही था, जिसके साथ इस नये दौर में आत्मविश्वासी और स्वाग्रही भारत को सहभागिता करने रहना चाहिए. भारत, जैसा मैंने अन्यत्र लिखा है, एक अनूठी ‘आत्म-केंद्रित’ सभ्यता है. हम न ही अब्राहम को मानने वाले लोगों की तरह ‘भगवान-केंद्रित’ हैं, न ही आधुनिक लोगों की तरह ‘मानव-केंद्रित’. हम शुरुआत से लेकर अब तक अपने स्व के अन्वेषण व इसे समझने की कोशिश करते रहे हैं.
हमने अक्सर निष्कर्ष निकाला है कि हममें से प्रत्येक उसी शक्ति और ऊर्जा के अंग है जिसने इस ब्रह्मांड को निर्मित किया है. जब हम बहुत दुख से गुजर रहे थे, तब फिर से हमें विवेकानंद ने इस सच को दिखाया था. इसके लिए हमें उनके सामने श्रद्धा से नतमस्तक और उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए.