अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : फुटबॉल को जीवन का ‘गोल’ बना रहीं मुसलिम किशोरियां

पुष्यमित्र पटना : पटना सिटी के नेहरू चिल्ड्रेंस पार्क के पास से गुजरते हुए कभी आपको कुछ लड़कियां फुटबाॅल खेलती नजर आ सकती हैं. आप अगर इनका नाम पूछेंगे, तो पता चलेगा कि कोई शफा परवीन है, तो कोई रेशम, कोई मुस्कान परवीन है, तो कोई गुलशन. 10 से 18 साल की उम्र की लड़कियों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 8, 2017 8:04 AM
पुष्यमित्र
पटना : पटना सिटी के नेहरू चिल्ड्रेंस पार्क के पास से गुजरते हुए कभी आपको कुछ लड़कियां फुटबाॅल खेलती नजर आ सकती हैं. आप अगर इनका नाम पूछेंगे, तो पता चलेगा कि कोई शफा परवीन है, तो कोई रेशम, कोई मुस्कान परवीन है, तो कोई गुलशन. 10 से 18 साल की उम्र की लड़कियों की इस टीम में ज्यादातर मुसलिम लड़कियां मिलेंगी. हिजाब और परदेदारी की वजह से जिस समाज में लड़कियां ऊंची पढ़ाई तक से महरूम कर दी जा रही हैं, वहां इन लड़कियों को जोशीले अंदाज में घंटों फुटबाॅल खेलते देखना एक सुखद एहसास हो सकता है.
मगर इनके लिए यह सफर इतना आसान नहीं रहा है. घरवालों को समझा-बुझा कर, समाज की निगाहों को इग्नोर कर और इस मैदान में पहले से खेलनेवाले लड़कों से अपने लिए थोड़ी जगह छीन कर इन लड़कियों ने फुटबाॅल खेलने का हक हासिल किया है. इस मैदान से उनका घर दो किमी दूर है. जग्गी का चौराहा मोहल्ले में रहनेवाली ये 14-15 लड़कियां हफ्ते में एक दिन फुटबॉल खेलने के लिए उस मैदान में जाती हैं. और उस दिन का इन लड़कियों को बेसब्री से इंतजार रहता है. आसपास के लोग बताते हैं कि जब ये लड़कियां खेलने लगती हैं, तो सबकुछ भूल जाती हैं. इन्हें किसी बात की फिक्र नहीं रहती. महज दो साल पहले तक स्कूल भी नहीं जानेवाली इन लड़कियों के लिए फुटबॉल खेलना किसी उपलब्धि से कम नहीं.
14 साल की शफा परवीन बताती हैं, अपने मोहल्ले में एक संस्था द्वारा संचालित किशोरी क्लब में जाने के बहाने मैं घर से निकलती थीं और खेल का ड्रेस बैग में छिपा कर ले जाती थी. चोरी छिपे मैं वहां से फुटबॉल मैदान चली जाती और वहां जब तक जी आये खेलती थी. मगर वे जानती थी कि यह सब बहुत रिस्की है, घरवालों को पता चला तो फुटबॉल तो बंद हो ही जायेगी, किशोरी सेंटर जाने पर भी पाबंदी हो जायेगी. ऐसे में सेंटर की संचालिका शाहिना ने इन लड़कियों की मदद की. घर-घर घूम कर इन बच्चियों की मांओं को समझाया कि बच्चियों को खेलने देना चाहिए.
शाहिना कहती हैं कि ऐसे दौर में जब बच्चियों का स्कूल बंद करवा कर लोग चूल्हा-चक्की में जोत देते हैं, घरवालों को खेल के लिए राजी करना काफी मुश्किल काम था. लोग तो बच्चियों की पढ़ाई को लेकर भी सहमत नहीं होते थे. कहते थे, क्या करेंगी पढ़ कर. परदे की कैसी व्यवस्था है, कोई पुरुष शिक्षक तो नहीं है न? मगर इसी माहौल में शाहिना ने अलग-अलग तरीके से इन बच्चियों की मांओं को समझाया कि लड़कियां खेलेंगी, तभी स्वस्थ रहेंगी और स्वस्थ रहेंगी, तभी घर परिवार का भार उठा सकेंगी, बच्चों को जन्म दे सकेंगी और अपने लिए बेहतर आजीविका का साधन चुन सकेंगी. इसलिए बेटियों का सेहतमंद होना जरूरी है. इस तरह पहले मांएं मानीं, फिर पिता राजी हुए, उसके बाद इन लड़कियों को खुल कर फुटबॉल खेलने की इजाजत मिली.
मगर इतना ही काफी नहीं था, समाज के दूसरे लोगों को अखरता था कि ये कैसी लड़कियां हैं, जो फुटबॉल खेलती हैं. लोग उनके बैडमिंटन खेलने तक को तो ठीक मानते, मगर फुटबॉल और लड़कियां फुटबॉल खेले, यह बात समाज को सूट नहीं कर रहा था. मगर लड़कियां थीं कि फुटबॉल छोड़ कर कुछ खेलने के लिए तैयार नहीं थीं. उन्होंने समाज की चिंता छोड़ कर ग्राउंड की तरफ जाना शुरू किया. धीरे-धीरे लोग मान कर चलने लगे कि ये ऐसी ही हैं.
पटना सिटी में अब फुटबॉल खेलनेवाली लड़कियों के तीन क्लब बन गये हैं. इनके क्लब का नाम चिराग क्लब है, इसके अलावा शाहगंज और कासिम कॉलोनी में भी फुटबॉल खेलनेवाली लड़कियों के क्लब बन गये हैं. जग्गी का चौराहा मोहल्ले की शफा परवीन ने तो तय कर लिया है कि वे बड़ी होकर फुटबॉल कोच बनेंगी. इस क्लब की एक अन्य खिलाड़ी जुलेखा परवीन कहती हैं कि हर लड़की को खेलने का भी उतना ही हक है, जितना लड़कों को. क्लब की सभी लड़कियां कहती हैं कि हर मोहल्ले में खेल का मैदान और ट्रेनिंग सेंटर होना चाहिए, ताकि देश की सभी लड़कियों को खेलने का मौका मिल सके. नहीं तो लड़कियां बिना खेले ही जवान और बूढ़ी हो जाती हैं.
पहले तो लड़कों ने किया विरोध, फिर देने लगे साथ
ये लड़कियां मैदान में पहुंचीं, तो वहां लड़कों का कब्जा था. वे मैदान छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. पहले एक दो दिन तक ये मैदान के कोने में खड़ी रह जाती थीं, वहीं फुटबॉल लुढ़काती रहती थीं. एक दिन सभी लड़कियों ने मिल कर एक साथ मैदान पर धावा बोल दिया.
पहले तो लड़कों ने रोकने की कोशिश की, मगर फिर खुद मान गये. कहने लगे, ये तो हफ्ते में एक रोज ही आती हैं, इन्हें खेलने दो. बाद में ये लड़के इन लड़कियों को खेल सिखाने के लिए भी तैयार हो गये. इस बीच इजाद संस्था की ओर से इनमें से तीन लड़कियों को एक प्रोफेशनल कोच से फुटबॉल खेलने का प्रशिक्षण भी दिलवाया गया है. अब ये लड़कियां बाकी लड़कियों को खेलना सिखाती हैं.

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