पटना : 18 अप्रैल, 2017 को चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे हो जायेंगे. इस मौके पर बिहार सरकार चंपारण शताब्दी समारोह का आयोजन कर रही है. 15 अप्रैल से बिहार सरकार चंपारण स्मृति यात्रा की शुरुआत करेगी. शताब्दी समारोह में 17 अप्रैल को देश के कुल 3,500 स्वतंत्रता सेनानियों को सरकार सम्मानित किया जायेगा. अतीत के आइने में चंपारण सत्याग्रह और नील की खेती करने वाले किसानों ने अंग्रेजों के अत्याचार को किस कदर बरदाश्त किया था, इन बिंदुओं को जानना भी जरूरी है.
जजिया कर से भी ज्यादा खतरनाक थी चंपारण की तिनकठिया पद्धति?
चंपारण में किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक एग्रीमेंट साइन करा लिया था, जिसके तहत किसानों को एक बिगहा जमीन में से तीन कट्ठे पर नील की खेती करना आवश्यक था. इसे तिनकठिया पद्धति कहा जाता था. जानकार बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत की ओर से बनायी गयी यह पद्धति भारत के तानाशाह और बर्बर मुगल शासक औरंगजेब के जजियाकर से भी अधिक खतरनाक थी. वजह साफ थी और वह यह कि इस पद्धति से किसानों द्वारा की जाने वाली नील की खेती का सारा लाभ उसके बागान मालिकों के पास चला जाता था.
किसानों की बेबसी का फायदा उठाते थे अंग्रेज
इतिहासकार यह भी बताते हैं कि 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंग की खोज और उसके प्रचलन से नील के बाजार में अचानक गिरावट आने लगी. नील बागान के जो मालिक थे, वे अपने कारखाने बंद करने लगे. इधर, किसान भी इस खेती से छुटकारा चाहते थे. इसकी वजह यह था कि नील की खेती से जमीन को भी हानि पहुंचती थी और जरूरत के हिसाब से आमदनी भी नहीं होती थी. नील के जितने भी बागान मालिक थे, वह ज्यादातर अंग्रेज थे. अंग्रेजों ने किसानों की बेबसी का फायदा उठाकर उनसे एग्रीमेंट मुक्त करने के लिए मनमाने ढंग से टैक्स को बढ़ा दिया. मनमाने तरीके से बढ़े बेतहाशा टैक्स की वजह से चंपारण विद्रोह की नींव पड़ गयी.
देसी जमींदार भी करते थे किसानों पर अत्याचार
अंग्रेजों द्वारा लगाये गये टैक्स और नील की खेती को लेकर किसानों में बढ़ते असंतोष पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए प्रो विनय कंठ कहते हैं कि अंग्रेजों ने सबसे पहले लगने वाले कर को बड़े जमींदारों पर थोपा. उन्होंने उनसे 89 फीसदी टैक्स की मांग की. जमींदार इस 89 फीसदी को पूरा करने के लिए अपने ही इलाके के नील की खेती करने वाले किसानों पर दबाव बनाते थे. उन्होंने प्रभात खबर डॉट कॉम को बताया कि उस दौर में कलरिंग मेटेरियल सिर्फ और सिर्फ इंडिगो था. अंग्रेज उसे पश्चिमी मार्केट में भेजते थे और जबरन नील की खेती करवाते थे. बाद में परिस्थितियां ऐसी बनी कि अंग्रेज प्लांटर मजबूत होते गये और कर की सीमा बढ़ती गयी.
‘बपहा-पुतहा’ कर
जानकार और इतिहासकार यह भी बताते हैं कि अंग्रेजों के अत्याचार की सीमा अनंत थी. वह जब चाहें, तब किसी भी तरह के टैक्स की घोषणा कर देते थे. वैसे ही टैक्स में से एक ‘बपहा-पुतहा’ टैक्स भी था. इसके तहत यदि किसी किसान के पिता की मौत हो जाती थी और उसकी जगह उसका बेटा घर का मालिक बनता था, तो उसके लिए भी वह अंग्रेजों को अलग से कर देना पड़ता था. जिसे वहां के लोग बोलचाल की भाषा में ‘बपहा-पुतहा ’ कर कहा करते थे.
‘घोड़हवा से घवहवा’ कर
वैसे तो अंग्रेजों ने नील की खेती करने वाले किसानों पर लगभग अलग-अलग तरह के 42 कर लगाये थे. इनमें एक चर्चित कर था ‘घोड़हवा से घवहवा’ कर. इस कर के मुताबिक, यदि किसी अंग्रेज को घोड़ा खरीदना हो, तो उसके लिए जनता से पैसे वसूले जाते थे. इतना ही नहीं, यदि किसी अंग्रेज को घाव हो गया और उसका इलाज कराना हो, तो उसके लिए भी जनता से कर वसूले जाते थे. ऐसे कई तरह के फालतू कर जनता को अंग्रेजों को देने पड़ते थे.
1917 में हुआ चंपारण एग्रेरियन कमेटी का गठन
अंग्रेजों के इस रवैये को देखते हुए 1917 में चंपारण के पंडित राजकुमार शुक्ल ने सत्याग्रह की धमकी दी. हालांकि, धमकी ने थोड़ा ही काम किया और कई प्रस्तावों को अंग्रेजों ने वापस ले लिया. जुलाई, 1917 में चंपारण एग्रेरियन कमेटी का गठन किया गया. जहां, गांधी जी भी इसके सदस्य थे. इस कमेटी के प्रतिवेदन पर तिनकठिया प्रणाली को समाप्त कर दिया गया. किसानों से अवैध तरीके से वसूले गये धन का भी 25 फीसदी वापस कर दिया गया. इस अधिनियम की वजह से किसानों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ.