कच्ची उम्र की शादी यानी लड़की की सेहत से खिलवाड़
स्त्री जीवन और उसकी सेहत : लड़की का कच्चा शरीर मातृत्व भार उठाने में होता है असक्षम, कई बार इसमें सांस भी छूट जाती है नासिरूद्दीन कच्ची उम्र की शादी दरअसल लड़कियों की पूरी जिंदगी से खिलवाड़ है. उसकी सेहत से खिलवाड़ है. जल्दी शादी, जल्दी मां बनने का दबाव, जल्दी जिम्मेवारियों से भरी जिंदगी […]
स्त्री जीवन और उसकी सेहत : लड़की का कच्चा शरीर मातृत्व भार उठाने में होता है असक्षम, कई बार इसमें सांस भी छूट जाती है
नासिरूद्दीन
कच्ची उम्र की शादी दरअसल लड़कियों की पूरी जिंदगी से खिलवाड़ है. उसकी सेहत से खिलवाड़ है. जल्दी शादी, जल्दी मां बनने का दबाव, जल्दी जिम्मेवारियों से भरी जिंदगी का आगाज है.
इस जल्दी में किसी की शख्सियत के विकास के लिए जरूरी ढेर सारी चीजें पीछे छूट जाती हैं. इसके बाद अनवरत अवरोध की शुरुआत होती है. अगर लड़की पढ़ रही होती है तो पढा़ई छूटती है. सेहत पर असर होता है. कच्चे घड़े की तरह, लड़की का कच्चा शरीर मातृत्व भार उठाने में टूटता है. कई बार इसमें सांस भी छूट जाती है.
प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार पर काम करने वाले सुभाष मेंढरपुरकर बताते हैं कि यूटरस का विकास 18 साल के बाद तक होता रहता है. यूटरस में ही संतान विकसीत होती है.
अगर यूटरस का विकास ठीक तरीके से नहीं हुआ तो कच्ची उम्र में मां बनना लड़की और संतान की सेहतमंद जिंदगी पर खतरा ही है. ऐसे में गर्भपात की आशंका बढ़ जाती है. उनके मुताबिक, मां बनने की सबसे बेहतर उम्र 22 से 27 साल के बीच होती है.
हम आसानी से देख सकते हैं कि जिन राज्यों में कम उम्र की शादी ज्यादा है, वहां लड़कियों की पढ़ाई की हालत भी अच्छी नहीं है. यही नहीं वहां मातृत्व मृत्यु दर भी ज्यादा है. सेंटर फॉर हेल्थ एंड रिसोर्स मैनेजमेंट (चार्म) के प्रमुख डॉ शकील कहते हैं, इन लड़कियों की संतानों की सेहत और उनके शारीरिक-मानसिक बढ़ोतरी पर इसका असर होता है.
यह चक्र है. इस चक्र में लड़की और उसकी संतान दोनों फंस जाते हैं. इसका असर हमें स्त्री स्वास्थ्य खासतौर पर ताउम्र दिखता है. यानी जिस समय लड़की के तन-मन को विकसित होने के लिए जरूरी खुराक चाहिए उस वक्त वह अपने खुराक से कई जिंदगियों की परवरिश करती है.
सुभाष अपने अनुभव से बताते हैं कि हमारे समाज में बढ़ती लड़कियों के खानपान पर काफी पाबंदी होती है. यह पाबंदी उसे प्रोटीन या शरीर के लिए दूसरी अहम चीजें लेने से रोकती है. वे बताते हैं कि किशोरियों को आमतौर पर गुड़, अचार, हरी मिर्च, अंडा वगैरह खाने से रोका जाता है.
किशोरियों के शरीर के लिए आयरन के साथ विटामिन सी जरूरी है. सुभाष एक और चीज की ओर ध्यान दिलाते हैं. उनके मुताबिक, जच्चचगी के दौरान जितनी ऊर्जा किसी लड़की के शरीर से निकलती है, खानपान की बंदिशों की वजह से वह पूरी नहीं हो पाती. इसलिए भी वह स्थायी तौर पर खून की कमी या कमजोरी की शिकार हो जाती है.
चूंकि उनकी शख्सीयत पुख्ता नहीं होती है, इसलिए उनके साथ हिंसा का डर भी सबसे ज्यादा होता है. खेलने-कूदने, भागने-दौड़ने की उम्र में उसके आने-जाने पर पाबंदियों की रेखा खींच दी जाती है. दूसरे राज्यों में तस्करी कर ले जाई जाने वाली महिलाओं में इस तरह ब्याह दी गई लड़कियों की तादाद ज्यादा होती हैं. अध्ययन बताते हैं कि ऐसी लड़कियां फैसले लेने में कमजोर होती हैं. शख्सीयत में दब्बूपन घर कर लेता है.
यही लड़कियों के प्रति हमारा सामाजिक नजरिया भी बताता है. इस दुनिया में लड़कियों का आना मतलब शादी के लिए पराए घर जाना है. उसकी जिंदगी का मकसद इसी शादी के ईद-गिर्द तय रहता है. मां-बाप के लिए वह किसी दूसरे की अमानत है, जिसे वे महफूज रखे हुए हैं. वे चाहते हैं, जितनी जल्दी हो सके, इस अमानत को सुरक्षित सौंप दिया जाये.
सेहतमंद समाज के लिए स्त्री सशक्तीकरण जरूरी
लेकिन सबसे बढ़कर गरीबी, पिछड़ापन, कम-पढ़ाई लिखाई, दहेज की बढ़ती मांग से इसका सीधा रिश्ता है.इन सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी का असर जिसे बाल विवाह के रूप में झेलना पड़ता है, वह लड़कियां ही हैं. इसीलिए सब लड़कियां भले ही खगौल की बेटी की तरह न कर पाएं लेकिन अनेक के जहन में यह विरोध सुलगता है और बुझ जाता है या बुझा दिया जाता है.
जाहिर है बाल विवाह सिर्फ कानून से नहीं रुक सकता है. जमीनी स्तर पर घर-घर की जागरूकता जरूरी है. लड़कियों के नजरिए से, उनकी सेहत और जिंदगी के नजरिए से जगाना जरूरी है. यह स्त्री नामक जीव के सशक्तीकरण और सेहतमंद समाज के लिए जरूरी शर्त है.