औरंगाबाद के इस गांव में कभी लगा करता था नक्सलियों की अदालत, यहां अब दिखता है विकास की धमक

औरंगाबाद और गया के सीमावर्ती इलाके पर नक्सलियों की चहलकदमी को खत्म करने के लिए अंबाबार तरी,लंगुराही और पचरूखियां में पुलिस कैंप बनाये गये.

By RajeshKumar Ojha | January 21, 2025 4:12 PM

औरंगाबाद जिले के अति नक्सल प्रभावित मदनपुर प्रखंड के दक्षिणी इलाके में अब विकास की धमक दिख रही है. वैसे तो पूरा औरंगाबाद जिला ही नक्सल प्रभावित था. एक तरह से इस जिले को नक्सल का टैग मिल गया था. कई बड़े नरसंहार ने जिले की प्रतिष्ठा को ध्वस्त कर दिया. दलेलचक बघौरा,मियांपुर,छेछानी जैसे नरसंहार ने पूरे जिले में नक्सल नाम का भय पैदा कर दिया.सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गये.लगभग 30 वर्ष तक औरंगाबाद जिला नक्सल की आग में जलता रहा.अब नक्सल का लगभग सफाया होता दिख रहा है. ऐसे में प्रभावित इलाके में नक्सल का भय समाप्त हो गया और खुशनुमा माहौल कायम हो गया.

मदनपुर प्रखंड से 10 से 15 किलोमीटर के बीच का दक्षिणी इलाका लाल गलियारे के तौर पर जाना जाता था. शाम होने के पहले ही यहां सन्नाटा पसर जाता था. पहाड़ की गोद में बसा लंगुराही और पचरूखिया को कभी मिनी चंबल के तौर पर जाना जाता था. हालांकि मिनी चंबल डाकुओ की नहीं बल्कि नक्सलियों के सेफ जोन के तौर पर पहचाना गया. लंगुराही से पहले अंबाबार तरी, पितंबरा, दुर्गापुर,रामाबांध, कोइलवा,छालीदोहर, सहजपुर,छेछानी, दलेल बिगहा, जुड़ाही जैसे कई गांव है जो नक्सलियों के चंगुल में फंसे थे.यहां के हर घर में नक्सल का भय घर कर गया था. बिना नक्सलियों के मर्जी के एक व्यक्ति घर से भी निकलने से परहेज करता था.

खूनी जंग आम बात थी. बच्चों की पढ़ाई बाधित थी. नक्सली कभी गांवों का विकास नहीं चाहते थे. ऐसे में विद्यालय जाने वाले बच्चों को भी पढ़ने से रोक दिया जाता था. जुड़ाही विद्यालय को नक्सलियों ने ध्वस्त कर दिया था. लंगुराही और पचरूखिया में चलने वाले स्कूल को बंद करा दिया गया था. पढ़ाने वाले शिक्षक को पीटकर नक्सलियों ने अधमरा कर दिया था. इसके बाद से विकास के सपने भी ध्वस्त हो गये थे.अब सब कुछ आसान सा दिखने लगा है.

पुलिस कैंप से गांवों में खत्म हुई दहशत

मदनपुर प्रखंड के दक्षिणी इलाके में नक्सलियों के वर्चस्व या यूं कहे लाल गलियारे को ध्वस्त करने में सरकार ने जब तत्परता दिखाई तो कठिन से कठिन काम भी आसान होने लगा.औरंगाबाद और गया के सीमावर्ती इलाके पर नक्सलियों की चहलकदमी को खत्म करने के लिए अंबाबार तरी,लंगुराही और पचरूखियां में पुलिस कैंप बनाये गये. फरवरी 2022 में तरी गांव के समीप सीआरपीएफ का कैंप बनाया गया.

इससे आसपास की नक्सल गतिविधियों पर नजर रखा जाने लगा. कुछ ही दिन बाद तरी से लगभग छह किलोमीटर आगे लंगुराही में सीआरपीएफ कैंप और लंगुराही से तीन किलोमीटर आगे पहाड़ी पर पचरूखिया में कोबरा का कैंप बनाया गया. इन तीनों कैंप में जब अर्धसैनिक बलों की प्रतिनियुक्ति हुई तो एक तरह से नक्सल का भय कम गया.बड़े-बड़े नक्सली या तो फरार हो गये या पकड़े गये. बहुत से नक्सली मारे भी गये. अब लाल गलियारे में लाल आतंक का साया लगभग कम गया है.

सड़क के साथ-साथ पुल-पुलियों का निर्माण

मदनपुर मुख्यालय से लंगुराही-पचरूखिया सहित तमाम नक्सल प्रभावित गांवों को जोड़ने के लिए सरकार द्वारा सड़क के साथ-साथ पुल-पुलियों का तेजी से निर्माण कराया गया. इससे आम लोगों का संपर्क बढ़ा. आवागमन शुरू हुआ और विकास की लकीरे लंबी हो गयी.हालांकि कोइलवा और रामाबांध गांव से लंगुराही व पचरूखिया जाने वाली सड़क अभी भी कच्ची है,लेकिन नदी-नाले पर पुल का निर्माण होने से आसपास के कई गांव के लोग लाभान्वित हो रहे है.

जंगल व जमीन गांव वालों का सहारा

लंगुराही और पचरूखिया दो ऐसे गांव है जिन्हें नक्सल की मार वर्षों तक झेलना पड़ा है. पहले आसपास के इलाके में अफीम की खेती होती थी. कई गांवों के लोगों के लिए एक बड़ा सहारा था.हालांकि इसमें नक्सलियों की भूमिका होती थी. अफीम की अवैध खेती से उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत रहती थी,लेकिन अर्धसैनिक बलों ने उनकी अवैध खेती को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया. समय-समय पर अभियान चलाकर अवैध खेती की पड़ताल भी की जाती रही है.

अब लंगुराही,पचरूखिया,अंबाबार तरी जैसे गांवों के लिए जंगल बड़ा सहारा है. बहुत से लोग जंगल की सूखी लकड़ियां चुनकर बाजार में बेचते है और उससे परिवार का भरण पोषण करते है.खाना बनाने में लकड़ी का इस्तेमाल करते है. बड़ी बात यह है कि उक्त इलाके में धान,गेहूं के फसल के साथ-साथ तिलहन फसल पर भी ग्रामीण जोर दे रहे है. दोनों गांवों में फसल देख हर किसी का मन गदगद हो जायेगा.

बांस का सूप और दउरा से हो रही आर्थिक स्थिति मजबूत

जंगली बांस पिछड़े हुए लोगों के लिए सहारा बन गया है. रविवार का बाजार ग्रामीणों के लिए एक उपहार जैसा है. पचरूखिया,लंगुराही,अंबाबार तरी सहित अन्य गांव के लोग पूरे परिवार के साथ बांस की टोकरी,सूप, दउरा आदि का निर्माण करते है. इसमें पूरे परिवार की भूमिका होती है. पांच से छह दिन मन लगाकर मेहनत करते है. सातवें दिन यानी रविवार को मदनपुर बाजार में जाकर उसे बेच देते है. इससे मिलने वाले पैसे से परिवार का भरण-पोषण हो रहा है. हालांकि गांव के अधिकांश लोग अनपढ़ है. ग्रामीण बीडीओ सिंह भोक्ता ने बताया कि बांस की टोकरी व सूप के साथ-साथ पत्तल व दोना उनके लिए जीवन जीने का सहारा है.उक्त सामानों को बेचकर जो पैसे मिलते है उससे परिवार की गाड़ी खिंच रही है.

आर्थिक तंगी में ग्रामीण,मदद की दरकार

लंगुराही,पचरूखिया और अंबाबार तरी ये तीनों गांव सुदूरवर्ती गांवों के तौर पर जाने जाते है. दशकों तक नक्सल का मार झेलने वाले यहां लोग आर्थिक तंगी का शिकार है. बकरियां पालकर भी आजीविका चलाते है. तमाम लोगों का घर फूस और मिट्टी का है. ग्रामीणों से जब बात की गयी तो उनका कहना था कि जंगल और पहाड़ में उन्हें कोई मदद करने वाला नहीं पहुंचता. सरकार गरीबों के लिए क्या कर रही है यह उन्हें पता नहीं. 20 साल पहले वे जिस तरह से जीवन जी रहे थे आज भी वही स्थिति है. फर्क यह है कि बाहरी इलाके में सड़क का निर्माण हो गया है और लोगों की पहुंच बढ़ी है. गरीबी पर कोई फर्क नहीं पड़ा है.

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कभी इस पत्थर पर बैठ नक्सली नेता सुनाते थे सजा

तरी गांव के समीप पहाड़ा सा दिखने वाला यह दृश्य वैसे तो पहाड़ का एक छोटा सा हिस्सा है. चारों तरफ बड़े-बड़े पेड़-पौधे है. इस पत्थर की अहमियत वे जानते है जो इसके साक्षी रहे है. पांच वर्ष पहले इसी पत्थर के ऊंचे टीले पर बैठकर नक्सली नेता गुनाहगारों को सजा सुनाते थे. आसपास में ग्रामीणों का जमावड़ा होता था. जब जन अदालत से संबंधित आदेश गांवों में फैला दिया जाता था तो आसपास के लोग यहां इकट्ठा हो जाते थे.इसके बाद जन अदालत की कार्रवाई शुरू होती थी. इस जगह पर कई लोगों को कोड़े मारने की सजा सुनाई गयी. कई लोगों की हत्या की सजा सुनाई गयी. अब यह पत्थर सैलानियों को या घूमने वाले लोगों को आकर्षित करता हुआ दिख रहा है. रास्ते से गुजरने वाले लोग यहां आराम करने से परहेज नहीं करते है.

ग्रामीणों की जुबानी


नगिया देवी कहती हैं कि गांव में विद्यालय नहीं होने के कारण बच्चे नहीं पढ़ पाते हैं. गांव में विद्यालय की दूरी 10 से 12 किलोमीटर है .गांव चारों तरफ पहाड़ से घिरा है. इस वजह से बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते हैं जिसके कारण यहां के अधिकांश बच्चे अशिक्षित हैं.


लंगुराही गांव के कारू सिंह भोक्ता कहते हैं कि हमारा जीवन जंगल तक सिमट कर रह गया है. सरकार और प्रशासन से अनुरोध है कि हमारे गांव को भी सड़क से जोड़ा जाए .हालांकि सीआरपीएफ कैंप खुलने से कैंप तक कच्ची सड़क का निर्माण हुआ है लेकिन गांव तक सड़क नहीं बनी है. गांव में मोबाइल का नेटवर्क नहीं है.


सुरेश सिंह भोक्ता कहते हैं कि गांव में पेयजल की सुविधा नहीं है. एक चापाकल व कुआं है जिसके सहारे प्यास बुझाते हैं. गर्मी के दिनों में पानी के लिए तड़पना पड़ता है .हमें राशन के लिए भी पैदल चलकर डीलर के पास जाना पड़ता है जो काफी परेशानियों का कारण बनता है.


राजमतिया देवी कहती है कि गांव के लोगों को सरकार से मिलने वाली सुविधाएं नहीं मिल पा रही है .गांव में रोजगार के साधन नहीं है .जंगल से सूखी लकड़ी और दोना -पत्तल बाजार ले जाकर बेचते हैं .उसी से जीविका चलता है.सरकार द्वारा ग्रामीणों को सहयोग करने की जरूरत है.

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