वीर कुंवर सिंह को जानिये, जब युद्ध शैली बदली तो अंग्रेजों को संभलने का भी नहीं मिलने लगा था मौका
वीर कुंवर सिंह के विजयोत्सव समारोह को लेकर भोजपुर के जगदीशपुर में आयोजन किये जा रहे हैं. आज जरुरी है कि बिहार समेत देश के युवा उस महान वीर को जानें और उनकी वीरता का पाठ पढ़ें जिनके हौसले के आगे अंग्रेज भी हारते रहे.
कुछ ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व होते हैं जो नियति से दो-दो हाथ करते हुए अपने जीवन को पल्लवित पुष्पित करते हैं. थोपी हुई विरासती महानता के खोखलेपन को कभी स्वीकार नहीं करते. अपितु उसे वे अपने त्याग, तप और शौर्य से अर्जित करते हैं. वे कागज के पन्नों से अधिक जनता के दिलों में स्थान पाते हैं.
1857 ईस्वी के स्वतंत्रता संग्राम के नायक वीर बांकुड़ा बाबू कुंवर सिंह ऐसे ही व्यक्तित्व थे, जिन्होंने परंपरागत बेड़ियों में जकड़ी राजसत्ता को एक नया आयाम दिया. अभिजात कुल में उत्पन्न होकर भी उन्होंने आजीवन अपने को अभिजातता से मुक्त रखा. बाबू कुंवर सिंह ने अपने को जन सामान्य के करीब लाकर एक नयी मिसाल कायम की.
समय के साथ उन्होंने युद्ध शैली में परिवर्तन किया और छापामार शैली अपनायी, जिसे कभी शिवाजी ने अपनाया था. इस शैली से उन्होंने अंग्रेजों के नाकों में दम कर दिया. वे अचानक अंग्रेजों की फौजी टुकड़ियों पर धावा बोल देते थे. जब तक अंग्रेज संभलते, तब तक उनका सबकुछ नष्ट हो चुका होता था. इस तरह अनेकों लड़ाइयां लड़ते हुए वे फिर जगदीशपुर की ओर लौटने लगे. इसी क्रम में उन्होंने गाजीपुर के करीब हुए युद्ध में अंग्रेज कमांडर डगलस को हराया.
21 अप्रैल, 1858 को शिवपुर गंगा घाट पार करते समय जनरल लुगार्ड की सेना ने कुंवर सिंह पर गोली चला दी. गोली उनके दायें हाथ में जा लगी. तब झट उन्होंने अपनी बांह को काटकर गंगा में समर्पित कर दिया. इस अवस्था में वे विजय पताका फहराते हुए 22 अप्रैल को जगदीशपुर पहुंचे. इस बीच लीग्रैंड नामक अंग्रेज कैप्टन के नेतृत्व में एक फौज आयी, पर इस जख्मी शेर ने उसे तहस-नहस कर डाला. जगदीशपुर किले से यूनियन जैक को उतार फेंका और जगदीशपुर की धरती पर 26 अप्रैल, 1858 को वीरगति को प्राप्त किया.
POSTED BY: Thakur Shaktilochan