Bihar: पटना. हाल के जातीय गणना के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अनुसूचित जातियों की आबादी करीब 19.65 फीसदी है. इसमें करीब 22 जातियां शामिल हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से सशक्त केवल तीन जातियां ही दिखती हैं. इनका प्रतिनिधित्व हर स्तर के राजनीतिक मंच पर अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक है. इनमें पासवान (दुसाध), मुसहर और रविदास शामिल हैं. इन तीनों की आबादी करीब 13.6 फीसदी है. वहीं अन्य 19 जातियों की आबादी करीब छह फीसदी है. ये जातियां राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में लगभग हाशिये पर हैं.
18 जातियों को नहीं मिला प्रतिनिधित्व
अनुसूचित जाति
- बंटार
- बौरी
- भोगता
- भुइया
- चौपाल
- चमार , ( रविदासिया , मोची )
- दबगर
- धोबी , (या रजक )
- डोम्बा , ( चांडाल सहित )
- दुसाध या पासवान
- घसिया
- हलालखोर( भंगी , वाल्मिकी )
- हेला /मेहतर
- कंजर
- कुरारियार , ( कुरील सहित )
- लाल बेगी
- मुसहर जाति
- नेट
- पानो
- पासी
- रजुआर , (रजवार)
- तुरी
पिछली बार पासवान जाति के चार उम्मीदवार जीते
बिहार की राजनीति के हिसाब से देखा जाए तो बड़ा सच यह भी है कि बिहार के अनुसूचित जातियों में 4-5 जातियां ही प्रमुख रूप से राजनीति में सक्रिय रहती हैं. ऐसे में ये पार्टियां भी इन्हीं जातियों के बीच से अपने-अपने प्रत्याशियों की तलाश करती हैं. बिहार में 2019 के लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटों पर छह उम्मीदवारों ने जीत हासिल की. इसमें से चार सीटों पर पासवान जाति के उम्मीदवार जीते थे. वहीं एक सीट पर मुसहर और एक अन्य सीट रविदास जाति के खाते में गयी थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में यही समीकरण था. इस चुनाव में भी चार सीटों पर पासवान जाति के उम्मीदवार ही जीते. वहीं एक सीट पर मुसहर और एक सीट पर रविदास जाति के उम्मीदवार को जीत मिली थी.
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सात सीटों पर चार जातियों का कब्जा
2009 के लोकसभा चुनाव में तीन सीटों पर रविदास, एक मुसहर, एक पासी और एक सीट पर पासवान उम्मीदवार जीते थे. 2004 के लोकसभा चुनाव में सात सीट आरक्षित वर्ग के लिए थी. इसमें से चार सीट पर पासवान यानी दुसाध जाति के उम्मीदवार विजयी रहे. वहीं एक सीट पर मुसहर, एक सीट पर रविदास और एक सीट पर धोबी जाति के उम्मीदवार विजयी रहे. अन्य 18 जातियों को मुकाबले से भी बाहर मान लिया जाता है. राजनीतिक दल प्राय: यह नारा देते रहे हैं कि जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. अब जातिवार गणना की रिपोर्ट आने के बाद प्रतिनिधित्व व सरकारी सुविधाओं में हाशिए पर खड़ी कम संख्या वाली जातियों में भी उचित राजनीतिक हिस्सेदारी की भावना प्रबल हो रही है.