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Bihar: अब सीमांचल की सियासत में कोई दूसरा मोहम्मद तस्लीमुद्दीन नहीं, अलग-अलग सीट से जीतकर दिखाते रहे ताकत

बिहार की राजनीति में एकबार फिर सीमांचल की चर्चा है. सीमांचल की सियासत ने एकबार फिर से करवट लिया और राजद को मजबूती दे दी. कभी मोहम्मद तस्लीमुद्दीन सीमांचल के नेता हुआ करते थे लेकिन उनके बाद किसी मजबूत नेता की पकड़ अब यहां नहीं रही.

ठाकुर शक्तिलोचन: बिहार में एकबार फिर सियासी उथलपुथल मची है और इस बार इसका केंद्र बना है सीमांचल. वो सीमांचल जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी क्षेत्र के परिणाम ने राजद को सत्ता से दूर और तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी से अलग रखा. सीमांचल के चुनाव परिणाम में असुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM का डंका बजा था. ओवैसी के 5 विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. राजद के वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी हुई थी. ये सब हुआ उस सीमांचल में जहां कभी लालू यादव के बेहद करीबी नेता तस्लीमुद्दीन की तूती बोलती थी.

सरपंच से मंत्री तक का सियासी सफर, लालू के मजबूत हाथ तसलीमुद्दीन

मोहम्मद तस्लीमुद्दीन, ये नाम बिहार की राजनीति में काफी मायने रखती थी. सरपंच से मंत्री तक का सियासी सफर करने वाले तसलीमुद्दीन को सीमांचल का गांधी कहा जाता था. पूरे क्षेत्र पर उनकी पकड़ कुछ ऐसी थी कि राजद सुप्रीमो लालू यादव पश्चिम बिहार को लेकर बेफिक्र रहते थे. तस्लीमुद्दीन बेहद दबंग नेता माने जाते थे लेकिन कहा जाता था कि वो मजलूमों की आवाज बनते थे और इसलिए उन्हें सीमांचल का गांधी कहा जाता था.

सीमांचल में अभी तसलीमुद्दीन वाली बात किसी और में नहीं

MY समीकरण की पहचान को लेकर राजनीत करने वाली राजद के लिए दो मुस्लिम नेता बेहद खास थे. एक मोहम्मद शहाबुद्दीन तो दूसरा मोहम्मद तसलीमुद्दीन. दोनों के निधन ने राजद को बड़ा नुकसान पहुंचाया. मोहम्मद तस्लीमुद्दीन का निधन वर्ष 2017 में हो गया. लेकिन जिस सीमांचल में तसलीमुद्दीन ने राजद को मजबूत किया वहां आरजेडी के किले में ओवैसी ने सेंधमारी कर दी. जिससे यह स्पष्ट संदेश गया कि अब सीमांचल को साधने के लिए राजद के पास कोई दूसरा तसलीमुद्दीन नहीं. लेकिन साथ ही साथ दो ही साल के बाद एक सियासी सर्जरी ने यह भी साबित कर दिया कि सीमांचल में अभी तसलीमुद्दीन जैसी मजबूत सियासी पकड़ किसी और की नहीं.

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ओवैसी ने खेला दांव, दो साल बाद झटका

वर्ष 2020 का चुनाव परिणाम सामने आया तो सबकी नजरें सीमांचल पर जाकर रूक गयी. सीमांचल में चार जिले किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कहिटार आते हैं. ओवैसी की पार्टी ने इन्हीं जिलों के 5 विधानसभा क्षेत्रों में जीत दर्ज की थी. इनमें दो सीटें किशनगंज, दो पूर्णिया और एक सीट अररिया जिले की है. ऐसा माना जाने लगा कि सीमांचल में अब ओवैसी की जमीन मजबूत होती जाएगी. लेकिन दो साल के बाद ही ओवैसी की राह कठिन हो गयी. बेहद आसानी से राजद ने उनके खेमे में सेंधमारी कर दी और AIMIM को फिर से एक ही विधायक वाली पार्टी बना दिया.

जानें तस्लीमुद्दीन को…

बताते चलें कि 1940 में अररिया के सिसौना गांव के एक छोटे किसान के घर मोहम्मद तसलीमुद्दीन का जन्म हुआ था. 1959 में इसी गांव से चुनाव लड़कर तसलीमुद्दीन सरपंच बने थे. 1964 में यहीं से वो मुखिया बने. 1969 में वो कांग्रेस की टिकट पर जोकीहाट से विधायक चुन लिये गये. 1972 में यहां से निर्दलीय लड़े और जीते भी. 1974 के छात्र आंदोलन में वो सीमांचल का मोर्चा संभाले. सीमांचल क्रांति मोर्चा का गठन किया. 1977 में जनता पार्टी के उम्मीदवार बने.

तसलीमुद्दीन विधायक से मंत्री तक रहे

कर्पूरी ठाकुर की कैबिनेट में सहकारिता सचिव बनाये गये तसलीमुद्दीन 1980 में अररिया तो 1985 में जोकीहाट से विधानसभा चुनाव जीते. 1989 में जनता दल ने टिकट दिया और पूर्णिया से चुनाव जीतकर सांसद बने. 1995 में समाजवादी पार्टी की टिकट पर विधायक ताो 1996 में जनता दल की टिकट पर किशनगंज से सांसद चुने गये. जिसके बाद देवगौड़ा सरकार में तसलीमुद्दीन को गृह राज्य मंत्री बनाया गया था.

लालू यादव के साथ आए तसलीमुद्दीन

जब जनता दल का विभाजन हो गया तो 1998 में तसलीमुद्दीन ने लालू यादव के नेतृत्व वाले राजद का दामन थाम लिया. आरजेडी में उन्हें राष्ट्रीय प्रधान सचिव का पद दिया गया. 2000 में किशनगंज से भारी मतों से जीते और राबड़ी देवी सरकार में भवन निर्माण मंत्री बनाए गये.

4 संसदीय सीट से लड़कर 3 पर जीते

14वीं लोकसभा चुनाव 2004 में किशनगंज और 16वीं लोकसभा चुनाव 2014 में अररिया से तसलीमुद्दीन जीते. सीमांचल के वो एकमात्र शख्स थे जो 4 संसदीय सीट से लड़कर 3 पर जीते थे. अब सीमांचल की सियासत में उस तरह की पकड़ किसी और नेता की नहीं दिखती है.

Published By: Thakur Shaktilochan

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