डॉ. राजेंद्र प्रसाद- हे भगवान तुम्हारी दया असीम है. तुम्हारी कृपा का कोई अंत नहीं है. आज मेरे सत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं. तुमने मेरी त्रुटियों की ओर निगाह न करके अपनी दया की वर्षा मुझ पर हमेसा की. इन सत्तर वर्षों में जितना सुख, मान, मर्यादा, धन, पुत्र इत्यादि समाज में सुख और बड़प्पन के साधन समझे जाते हैं, सब तुमने विपुल मात्रा में दिया. मैं किसी भी योग्य नहीं था, तो भी तुमने मुझको बड़ा बनाया. यह कृपा बचपन से ही मेरे उपर रही. सबसे छोटा बच्चा होने के कारण मेरे ऊपर पिता-माता तथा घर के सारे लोगों का अधिक प्रेम रहा करता था. पढ़ने में भी मैं जिस योग्य नहीं था उतना ही यश और प्रसिद्धि अनायाश मेरे बिना परिभ्रम और इच्छा के दो.
घर में अधिक कठिनाइयां होते हुए भी मुझे उसका कभी अनुभव नहीं होने दिया. जैसे पिता वैसे ही माता, देवता-देवी तुल्य हर तरह से मुझे सुख देने के लिए हमेशा तत्पर और स्वयं अपनी तपस्या से हमको सुखी बनाने वाले हमारे ऊपर प्रेम की वर्षा करते रहे. भाई ऐसा मिला जैसा किसी भी शायद ही कभी नसीब हुआ हो-जिसने मेरे ऊपर ठीक उसी तरह छत्र छाया करके न केवल कष्टों से बल्कि सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रखा.
जिस तरह कृष्ण ने गोवर्धन को उठाकर गोप-गोपियों को इन्द्र के कोप से सुरक्षित रखा और अपने ऊपर सभी कष्टों को ले लिया-पर इस भावना से कि यदि मुझे उसका अनुमान हो जाए तो मैं दुखी होउंगा-मुझे कभी इसका आभास तक न होने दिया. बच्चों को इस तरह पाला जिस तरह कोई भी पिता अपने बच्चों को पाल सकता हैं.
मैं मनमाना अपने आदेशों और विचारों पर चलता रहा जिसका प्रभाव उनके जीवन पर कष्ट के रुप में ही मैं समझता हूं पड़ता रहा होगा. पर उन्होंने कभी भी यह नहीं जाहिर होने दिया कि वह मुझसे कुछ दूसरा करवाना चाहते थे या आशा रखते थे. बराबर मुझे अपनी इच्छा और भावना के अनुसार चलने देना ही अपने लिए आनंद का विषय बना रखा था और यह कृत्रिम नहीं था-स्वाभाविक था. उनके लिए मेरे को खुश रखने के समान और दूसरा कोई आनंद का विषय नहीं था.
मैं अपने ढ़ंग से विकसित होऊं- ऊंचे से ऊंचे उठ सकूं यही उनके लिए सबसे अधिक प्रिय स्वप्न था और इसी को उन्होंने चरितार्थ किया. घर के लोगों के अलावा संसार में भी मेरे ऊपर जितनी कृपा रखी शायद दूसरों पर नहीं रखी. यह तुम्हारे ही पथ-प्रदर्शन का फल है कि किसी का ध्यान मेरी त्रुटियों और अयोग्यताओं और कमजोरियों की ओर नहीं गया और सबों ने मुझे केवल आदर सम्मान ही नहीं दिया, मुझे यश भी दिया जिस यश का मैने तो अपने को कभी अधिकारी ही नहीं समझता और न योग्य.
घर में और बाहर सबके प्रेम और कृपा का पात्र बना रहा.और इस प्रकार कोई भी ऐसी लालसा मुझे नहीं रह गयी जो किसी भी मनुष्य की हो सकती है. लालसा हों या न हो कोई भी मनुष्य जो भी लालसा कर सकता है यब ने मुझे बिना लालसा के अनायास ही तुमने मुझे दिया और देते जा रहे हो. मैं तुम्हारी इस दया दृष्टि को बनाए रखने के लिए क्या प्रार्थना करूं. तुमने आज तक बिना मांगे ही मुझे सब कुछ दिया है.
मैं जानता हूं कि यह भी बिना मांगे ही बनाए रखेंगे.घर में सती साध्विनी पत्नी, सुशील आज्ञाकारी लड़के -लड़कियाँ और दूसरे सगे सम्बन्धी हमे सुख. देना ही अपना कर्तव्य मानते हैं. इस अवस्था में भी मैं अपने ढंग से ही अपनी इच्छा के अनुसार ही काम करता, उनकी परवा नहीं करता. और न उसके सुख-दुख की चिन्ता करता.पर तो भी उनका प्रेम वैसा ही असीम / अधिक मैं क्या कहूँ. एक ही भीख मांगनी है- मेरे बाकी दिनों को तुम अपनी ओर खींचने में लगाओ.
मैं सांसारिक रीति से बहुत सफल अपने जीवन में रहा, पर आध्यात्मिक रीति से भक्ति बढ़ सकता. पथ बताने वालों की कमी कभी नहीं रही. महात्मा जी से बढ़कर कौन हो सकता है. उनकी कृपा भी जितनी रही, यदि मुझमें कुछ भी शक्ति होती तो मैं उनका सच्चा अनुयायी बन सकता था. पर उनकी कृपा और उनके सम्पर्क का सांसारिक लाभ जो किसी को भी मिल सकता था मैने प्रचुर मात्रा में पाया. उनके आध्यात्मिक और भगवान-भक्ति में से मैं कुछ भी नहीं ले सका और न अपने जीवन को किसी भी उनके सांचे में ढ़ाल सका.
यदि कभी वह मुझे तौलते तो देखते की मुझमें सच्चा वजन कुछ भी नहीं है. जिस तरह से तुमने कभी तौल कर मुझे योग्यता के अनुसार कुछ नहीं दिया बल्कि बिना तौले ही विपुल मात्रा में सब कुछ देते रहे- सब कुछ सुख,समृद्धि, धन, वंश, मित्र, सेवक और सबसे अधिक यश- बराबर देते रहे उसी तरह उन्होंने भी बिना तौले ही जो कुछ मैं आज सांसारिक दृष्टि से पाया, बनाया. क्या अब भी मुझे अपनी ओर नहीं खींचोगे? जीवन को सच्चा आध्यात्मिक नहीं बनाओगे? क्या बांकी दिन भी यश और सांसारिक समृद्धि लुटने में ही बिताने दोगे और मुझसे ऐसे कर्म न कराओगे जो मुझे तुम्हारी ओर ले जाए.
यदि कृपा है तो मुझे उस ओर खिंचो और उस ओर ले चलो और जो मुझे आज बिना कारण मिल रहा है, उसको सचमुच सार्थक बनाओ और सबको सच्चा अधिकारी बनाओ. पर मुझे सचमुच इन सबको छोड़कर भी अपनी ओर खींचो और उसी दया दृष्टि से एक बार मेरी आँखों को खोल दो जिसमें मैं तुम्हारे सच्चे आनन्दमय दर्शन पा सकूं.
Published By: Thakur Shaktilochan