नेपाल के बौद्ध विहार में संरक्षित है दुर्गा महात्म का सबसे पुराना ग्रंथ, इस इलाके से शुरू हुई नवरात्रि पूजा
Durga Puja: विद्यापति ठाकुर ने दुर्गा-पद्धति पर एक मानक ग्रंथ लिखा जो नेपाल, बंगाल, उत्कल समेत पूरे उत्तर भारत में दुर्गा पूजा का आधार पद्धति बना हुआ है. इसमें विद्यापति ठाकुर ने मुख्य रूप से महालया से दशमी तक की पूजा का विधान लिखा है. जो आज भी इन इलाकों में मानक बना हुआ है.
Durga Puja: पटना. अभी नवरात्रि का पावन काल चल रहा है. पूजा विधान से लेकर बलि प्रथा तक पर विमर्श हो रहा है. ऐसे में यह जिज्ञासा जायज तौर पर पैदा होती है कि आखिर दुर्गा पूजा की विधि और विधान कब और कैसे तय हुआ. प्राप्त पांडुलिपि के अनुसार दुर्गा पूजा की सबसे पुरानी परंपरा बिहार के मिथिला इलाके में ही रही है, जो नेपाल, बंगाल और उत्कल तक के लिए आज भी एक मानक स्रोत के रूप में स्वीकार की गयी है.
भुजिमोल लिपि में है सबसे पुरानी पांडुलिपि
दुर्गा पूजा से संबंधित पुस्तक की बात करें तो देवी माहात्म्य के नाम से सबसे पुरानी पांडुलिपि नेपाल के एक बौद़ध विहार में संरक्षित है. यह 11वीं शताब्दी में कोणीय भुजिमोल लिपि में लिखी गयी. लिपि विशेषज्ञ पं. भवनाथ झा ने एक हज़ार साल पुरानी इस पांडुलिपि को आधुनिक तिरहुता लिपि का प्राचीन रूप बताया है. इस पाण्डुलिपि का एक पृष्ठ विकीपीडिया पर भी उपलब्ध है. अतः पूरी सम्भावना है कि यह पाण्डुलिपि मिथिला क्षेत्र (जो अब भारत और नेपाल में विभाजित है) में तैयार की गयी होगी. देवी-माहात्म्य की उपर्युक्त पांडुलिपि लेखन से करीब 200 साल बाद 13वीं शती के शुरुआत में ही मिथिला नरेश हरि सिंहदेव के धर्माधिकरणिक चण्डेश्वर ठाकुर ने भी ‘कृत्यरत्नाकर’ में दुर्गा पूजा की विधियों का वर्णन किया है. इन दोनों ग्रंथों में पूजा विधान का कोई उल्लेख नहीं है.
विद्यापति ने दुर्गा पूजा का लिखा मानक ग्रंथ, तय की नवरात्रि पूजा
चण्डेश्वर ठाकुर की ‘कृत्यरत्नाकर’ के 100 साल बाद 14वीं शताब्दी में विद्यापति ठाकुर ने दुर्गा-पद्धति पर एक मानक ग्रंथ लिखा जो नेपाल, बंगाल, उत्कल समेत पूरे उत्तर भारत में दुर्गा पूजा का आधार पद्धति बना हुआ है. इसमें विद्यापति ठाकुर ने मुख्य रूप से दुर्गा की मूर्ति का स्वरूप, सार्वजनिक पूजा में किन-किन देवियों की कैसी प्रतिमा होनी चाहिए, देवी को क्या-क्या चढ़ाना चाहिए, इन सबके बारे में विस्तार से लिखते हुए महालया से दशमी तक की पूजा का विधान लिखा है. जो आज भी इन इलाकों में नवरात्रि के रूप में मानक बना हुआ है. पं भवनाथ झा कहते हैं कि विद्यापति ने वैसी पद्धति दी, जिसमें वर्तमान अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को विशेष तौर पर न्योता देकर बुलाने का विधान है, ताकि दशमी के दिन का शाबर-उत्सव सम्पन्न हो सके. समाज हर तबके को इस पूजा का आवश्यक अंग माना गया हैं.
रघुनंदन की 16 दिवसीय पूजा विधि नहीं हुई लोकप्रिय
विद्यापति ठाकुर के करीब 100 साल बाद बंगाल में रघुनंदन ने स्मृतितत्त्व के अंतर्गत दुर्गातत्त्व के नाम से दुर्गापूजा की पद्धति तैयार की, जो 16 दिनों की है. इसी कालखण्ड में मिथिला के खण्डवला राजवंश के संस्थापक महेश ठाकुर ने भी दुर्गोत्सव-पद्धति लिखी, जिसकी पाण्डुलिपि पटना विश्वविद्यालय में 41पृष्ठों की अप्रकाशित पड़ी हुई है. रघुनंदन के 100 साल बाद बंगाल के चंडीदत्त ने दुर्गासप्तशती नाम से दुर्गा माहात्म्य लिखा. इसी पुस्तक का आज भारत में सर्वाधिक पाठ हो रहा है. वैसे चंडीदत्त के बाद मराठी पद्धति की रचना मिलती हैं. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से सार्वजनिक दुर्गापूजा जितनी जगहों पर शुरू हुई, सबके लिए वहां के पण्डितों ने अपने-अपने लोकाचार से दुर्गासप्तशती की रचना की, लेकिन बिहार बंगाल में जो भी दुर्गासप्तशती की रचना हुई उनका मानक ग्रंथ विद्यापति ठाकुर रचित दुर्गाभक्तितरंगणी ही रहा.
पिछले 50 वर्षों में मराठी पद्धति का बिहार में हुआ प्रसार
इस संबंध में पंडित राजनाथ झा कहते हैं कि पिछले 150 वर्षों में बंगाल ने जहां रघुनंदन क़ो अपनाया, वही पिछले 50 वर्षों से बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मराठी पद्धति गीता प्रेस के माध्यम से प्रसारित प्रचरित होती रही. विद्यापति धीरे धीरे गायब होते गए. बाबू जयधारी सिंह की माने तो 1917 तक बंगाल में विद्यापति की पद्धति सर्वमान्य थी. काशी हिंदू विश्वविद़यालय के पंडित शाश्वत मिश्रा कहते हैं कि कोलकाता के सावर्ण राय चौधरी के घर 1610 ई से पूजा हो रही है, जो बंगाल में सबसे पुराना दुर्गाबाडी है. वहां की पूजा पद़धति आज भी विद़यापति की दुर्गाभक्तितरंगणी में वर्णित विधि से ही होती है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि दुर्गा पूजा की पुरातन विधि की रचना मिथिला में जरूर हुई, लेकिन इस परंपरा को बिहार जहां आज भूल चुका है, वहीं नेपाल, बंगाल और उत्कल बचाये रखा है.