Diwali 2024: दीपावली को लेकर राजधानी व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कुम्हार परिवार जी तोड़ मेहनत कर दीया बना रहे हैं. विरासत में मिली परंपरा खत्म होने का दुख: मुनाफे की उम्मीद और खुशी के बीच कुम्हारों के चेहरे पर शिकन भी है. वे दु:खी इसलिए हैं कि उनके बच्चे अब विरासत में मिली इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते. दीपावली की तैयारियां जोरों-शोरों से चल रही हैं. इस पर्व को लेकर पुश्तैनी कार्य कर रहे कुम्हार पिछले चार-पांच महीने से मिट्टी के दीयों को कई प्रकार के आकार देने और उनकी सजावट करने में जुटे हैं.
फुलवारीशरीफ (गोनपुरा) के दिनेश पंडित, मुनमुन पंडित और संतोष पंडित का कहना है कि वे पिछले 20 साल से दीये बना रहे है, ये उनका पुश्तैनी काम है. पहले वे चाक के माध्यम से मिट्टी के बर्तन व दीये तैयार करते थे, लेकिन अब बिजली की मशीन आने से काफी सुविधा हुई है. इससे कई तरह के आकार के दीयों व मिट्टी के बर्तनों को तैयार किया जा सकता है. दीपावली पर दीयों की बिक्री करने से जो मुनाफा होता है, उससे ही घर की रोजी रोटी चलती है.
पिछले साल की तुलना में काफी महंगी हो गयी है मिट्टी
फुलवारीशरीफ स्थित गोरियाडेरा के शेष पंडित, सुनील पंडित और मिन्ना देवी ने बताया कि पिछले साल की तुलना में इस वर्ष मिट्टी काफी महंगी हो गयी है. इस बार 15 सौ प्रति ट्रैक्टर मिली है. जबकि पिछले वर्ष मिट्टी का भाव 1000 प्रति ट्रैक्टर था. इसके अलावा जलावन आदि की कीमत भी बढ़ी है. इसके कारण मेहनत के मुकाबले मुनाफा काफी कम हो गया है. दीयों के व्यापार से ही हमारी रोजी रोटी ही चल पाती है. उम्मीद है कि इस बार भी दीपावली त्योहार पर बेहतर कारोबार होगा.
बदला दीयों का स्वरूप, ताकि लोग करे खरीदारी
65 वर्षीय राजकुमार का कहना है कि वे पिछले कई सालों से मिट्टी के बर्तन तैयार करने का काम कर रहे हैं. हर बार दीपावली पर दीये भी तैयार करते हैं. ग्राहकों को लुभाने के लिए मिट्टी के परंपरागत दीयों के साथ डिजायनर, कलरफुल और आकर्षक शेप वाले दीये भी तैयार करने लगे हैं, ताकि लोग इसकी खरीदारी करे. पर बिजली के आइटम ने हमारा बिजनेस खराब किया है. बीते कुछ सालों में दीयों की खरीदारी औपचारिकता भर रह गयी है.
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कलाकार ने कहा- प्रभात खबर के मुहिम से जुड़ें, हमारा भी रोशन होगा घर
- पिता के साथ कुम्हार का काम सीखा. पहले इतनी सुविधाएं नहीं थी, लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक चाक से ही काम करते हैं. दीया सुखाने और इसे पकाने के लिए भट्टी का इंतजाम करना पड़ता है. मिट्टी भी आसानी से नहीं मिलती. इस साल 20 हजार दीये तैयार किए हैं. प्रभात खबर के मुहिम से लोग यदि जुड़ें, तो हमारा घर भी रोशन हो सकता है. – अकलू पंडित, कलाकार
- बाजार में अब इलेक्ट्रॉनिक सामान भी आ गए हैं. जिसके कारण लोग दीये कम खरीद रहे हैं, हालांकि ऐसी स्थिति कभी नहीं आई जब हमारे सामने जीविकोपार्जन का संकट हो. दीया और मिट्टी की कलाकृतियां बनाकर घर चल जाता है. लेकिन अब जो आजकल के बच्चे हैं. नई पीढ़ी है, वह इस काम को नहीं करना चाहते. – पार्वती देवी, कलाकार
- मिट्टी के दीये की डिमांड पहले की तुलना में काफी घट गयी है. इसका एक कारण महंगाई भी है. इसके साथ ही दीये में तेल और रुई की बत्ती के झंझट से बचने के लिए लोग इलेक्ट्रॉनिक दीये और झालर खरीदने लगे हैं. पिछले साल के मुकाबले इस साल सौ रुपये प्रति हजार दीये की बढ़ोतरी हुई है. – सुनीता देवी, कारोबारी
- इस दिवाली भी लोगों को मिट्टी के दीयों का इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि कुम्हारों को अपनी परंपरा को बचाये रखने में मदद मिल सके. लोगों को स्वदेशी पर ध्यान देना चाहिए और मिट्टी के दीये का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि कुम्हार को अपनी परंपरा को बचाने में फायदा हो सके. – नम्रता शंकर, गृहिणी
- त्योहार से सबसे ज्यादा स्वरोजगार को बढ़ावा मिलता है. त्योहार से हर तबके के लोग जुड़ते हैं.पूरी लग्न और निष्ठा व कठिन परिश्रम से मिट्टी के दीए एवं खिलौने बनाते हैं. ताकि दूसरों के घरों में फैले अंधकार को मिटाकर प्रकाशमान बनाया जाये. आइए, इस दीपावली पर मिट्टी के दीए जलाने का संकल्प लें. – नीता चौधरी, गृहिणी
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मिट्टी के दीये में तेल डालकर दीपावली में घर आंगन में दीये जलाना चाहिए न कि मोमबत्ती और फैंसी लाइट, मिट्टी के पारंपरिक खिलौने, बर्तन, दीये एक खास समाज के लाखों लोगों को रोजगार का अवसर प्रदान होता है. इसलिए मिट्टी के दीये जलाने का संकल्प लें ताकि लाखों परिवार के घर भी रौशन हो
– प्रिंस कुमार राजू , समाजसेवी
दिवाली पर घर को मिट्टी के दीयों से रोशन करने की परंपरा सदियों पुरानी है.इसका अपना महत्व भी है. लेकिन पिछले कुछ सालों से आधुनिकता के दौरा में उत्सव के मौके पर यह परंपरा कम हुई है. दीवाली के उत्सव को जगमग करने में कुम्हार समाज के लिए दिन-रात एक कर दीये तैयार करते है. इसलिए प्रभात खबर के मुहिम ‘दीया मिट्टी के जलाएं, पर्यावरण बचाएं’ से जुड़कर कुम्हारों के आशियाने को भी रोशन होने दें.
– डॉ संतोष कुमार मिश्रा
कुम्हार परिवार पिछले कई दशक से मिट्टी के बर्तन मिट्टी की मूर्ति और अन्य चीज बनाकर अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करता आ रहा है. लेकिन जिस तरह से परिवेश बदल रहा है,उसका सीधा असर कुम्हारों की रोजी रोटी पर पड़ा है. इसलिए अक्सर कुम्हार परिवार आर्थिक तंगी से जूझते रहते हैं. सरकार की ओर से भी कुम्हारों के लिए कोई खास मदद नहीं मिलती. जिसके कारण अब हर दिवाली कुम्हारों के लिए खुशहाली नहीं लाती.
– रमेश प्रसाद, संयोजक, बिहार कुम्हार (प्रजापति) समन्वय समिति
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