राजदेव पांडेय,पटना : आज जब कोविड 19 के दौर में कुछ असमाजिक लोग धर्म की बात उछालकर सामाजिक भाई-चारा को तोड़ने की फिराक में हैं, उन्हें 130 साल पहले की प्लेग महामारी की वह घटनाएं भी याद रखना चाहिए, जब दोनों वर्ग मौत के मुंह भी एकदूसरे के हम-दम बने जुए थे़ उस समय पटना सहित समूचे बंगाल प्रांत में प्लेग से मौत का खौफ पसरा हुआ था. बात 1998 की बात है कि तब के पटना के प्रख्यात वकील दिवंगत गोविंद प्रसाद महामारी के दौर में बाढ़ स्थित अपने खेतों में बने फार्म हाउस में चले गये़ कहा जाता कि पटना का शायद ही ऐसा कोई घर हो जब उनके बच्चे न मरे हों.
शहर के अधिकतर लेकिन रईस लोग क्वारेंटिन हो गये थे़ इस भयंकर दौर में स्थानीय नवाब ने वकील गोविंद प्रसाद से अपने गुलाब बाग नाम के बगीचे में रहने के लिए शरण मांगी़ गोविंद प्रसाद ने उन्हें सपरिवार रहने के लिए अपने साथ रहने की हामी दे दी़ संकोच सिर्फ भोजन का था़ गोविंद प्रसाद पूर्ण शाकाहारी और नवाब परिवार पूरी तरह मांसाहारी था.
मेहमान से शिष्टाचार वश कुछ कह भी न सके़ हालांकि इस समस्या का समाधान खुद हसन खान ने किया़ बताते हैं कि महीनों क्वारेंटिन रहने के दौरान उन्होंने और उनके परिवार ने मांस न खाकर पूरी तरह वैष्णव यानी शाकाहारी भोजन किया़ वहीं पांच वक्त की नमाज और उसी जगह हरिकीर्तन गाये गये़ ऐसे तब कई उदाहरण देखे गये़ वैसे तब नालंदा में भी लोग क्वारेंटिन किये गये़ खासतौर पर नालंदा जिले के अस्थामा प्रखंड स्थित रंजवां गांव में प्लेग से हर घर से दो बच्चों की मरने की बात कही जाती है़ तब विदेशों में एयर इंडिया के विमानों को प्लेग प्लेन कहा जाने लगा था़
बिहारी मजदूरों के सामने 1994 में भी संकट आया था– श्रमिकों की 1995 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक 1994 में सूरत और गुजरात के कई इलाकों में प्लेग फैला था़ तब भी वहां से हजारों की तादाद में मजदूर हारे थके बिहार लौटे थे़ मुंगेर विवि के कुलपति प्रो रंजीत कुमार वर्मा से बातचीत पर आधारित.