Folk Dance: विद्यापति को सदियों संजोया है विदापत, आज खुद संरक्षण का मोहताज है यह लोक नृत्य
Folk Dance: सदियों तक विद्यापति के गीतों को संजोकर रखनेवाली विदापत परंपरा आज खुद संरक्षण की मोहताज है. कभी दलित और पिछड़ी जातियों के घरों में होनेवाले उत्सवों में विदापत नाच बोलबाला रहता था, बदलते परिवेश में वहां भी अब डीजे की शोर ने विदापत के छंद को खामोश कर दिया है.
Folk Dance: पटना. विद्यापति पर्व समारोह के इस मौसम में विद्यापति को सदियों संजोकर रखनेवाले विदापत नाच की लुप्त होती परंपरा एक चिंता का विषय बना हुआ है. मिथिला की विदापत नृत्य व गीत परंपरा विद्यापति समारोह के मंच से भी बेदखल हो चुकी है. सदियों तक विद्यापति के गीतों को संजोकर रखनेवाली विदापत परंपरा आज खुद संरक्षण की मोहताज है. कभी दलित और पिछड़ी जातियों के घरों में होनेवाले उत्सवों में विदापत नाच बोलबाला रहता था, बदलते परिवेश में वहां भी अब डीजे की शोर ने विदापत के छंद को खामोश कर दिया है. कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु के रिपोर्टाज को पढ़कर जिस विदापत नाच मंडली का इतिहास पता चलता है, वर्तमान में वो नृत्य व गीत परंपरा उनके गांव में ही अंतिम सांसें ले रही है.
मिथिला में है अनेक नृत्य व गीत शैली का इतिहास
कथाकार गिरिंद्र नाथ कहते हैं कि मिथिला में अनेक नृत्य व गीत शैली का इतिहास रहा है. लोरिक-मनियार, हंसराज-बंसराज, गुगली-घटमा, दीनाभदरी, सती बिहुला, गोपीचंद, भरथरी, सलहेश-कुसमा, रेशमा-चूहड़मल, हिरणी-विरणी, सारंगा, सादाविरिछ, शीतबंसत, सुंदरवन, रूनाझूना, आल्हाउदल आदि अनेक नाम हैं. विदापत शैली भी इन्हीं में से एक है. गांव को शहर बनने की लालसा ने इन तमाम परंपराओं को एक एक कर खत्म कर दिया है. समाज में सबसे पीछे रहनेवाली जातियों के बीच पली-बढ़ी यह नृत्य व गीत शैली बदलते परिवेश में अलोकप्रिय होती चली गयी. पूर्वी मिथिला के कुछ इलाके और नेपाल के तराई जिलों को छोड़ दें तो आज इस शैली के कलाकार अब कहीं नहीं बचे हैं. इसे सहेजने के लिए कभी प्रशासनिक या सामाजिक तौर भी पहल नहीं की गई. रेणु के जमाने के विदापत मंडली के आखिरी सदस्य ठीठर मंडल ने अभावों में पूर्णिया सदर अस्पताल में अंतिम सांस ली थी.
पूर्वी मिथिला और नेपाल में बचे हैं कुछ कलाकार
1808 में फ्रांसिस बुकानन ने एकाउंट आफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ पूर्णिया में सलहेश नाच का जिक्र किया है. विदापत शैली को लेकर रेणु ने ही सबसे मजबूत लेखन किया है. 1960 में रेणु ने अपनी लेखनी के माध्यम से विदापत नाच मंडली का देश-दुनिया से परिचय कराया. रेणु के पैतृक गांव अररिया जिले के औराही हिंगना में उस समय विदापत नाच की कई मंडलियां हुआ करती थी. आज भी इसी इलाके में ही विदापत के कलाकार बचे हुए हैं, जो सरकारी आयोजनों में इसकी प्रस्तुति करते हैं. रेणु के पोते अनंत राय कहते हैं कि अब केवल एक ही मंडली बची है, जिसमें 10-11 कलाकार हैं. वही सरकारी मंचों पर भी प्रस्तुति देती है और अगर कोई समाज में कार्यक्रम होता है तो यही लोग जाते हैं. दलित चेतना पर काम करनेवाले कथाकार तारानंद वियोगी भी कहते हैं कि विदापत शैली अब भारत से अधिक नेपाल के तराई में बची हुई है. भारत के पूर्णिया, अररिया और कटिहार क्षेत्रों में कुछ कलाकार हैं, लेकिन उनकी सक्रियता महज सरकारी आयोजनों तक सिमटकर रह गयी है. कोसी प्रमंडल में अब किसी नाच मंडली का वजूद नहीं बचा है.
विदापत में गाये जाते हैं केवल विद्यापति के गीत
तारानंद वियोगी कहते हैं कि मैथिली के महाकवि विद्यापति को अगर सदियों तक किसी ने संरक्षित करने का काम किया तो वो विदापत नृत्य व गीत शैली ही है. विदापत में केवल विद्यापति के गीत ही गाये जाते हैं. समाज के सबसे नीचले तबके ने विदापत शैली के लिए विद्यापति का चयन क्यों किया यह शोध का विषय है, लेकिन विद्यापति के भक्ति रस के गीतों से ज्यादा उनके श्रृंगार रस के गीतों की इसमें अधिक प्रयोग दियाता है. राधा-कृष्ण के श्रृंगारिक गीतों को प्रस्तुत किया जाना विदापत नाच की पौराणिक परंपरा है. तारानंद वियोगी कहते हैं कि यह एक खास समाज और खास तबके के बीच पला बढ़ा, इसलिए इसका फैलाव पूरे समाज में देखने को नहीं मिला. तारानंद वियोगी कहते हैं कि पूर्व मध्यकालीन और मध्यकालीन भारत की सामाजिक घटनाओं पर आधारित इन नाचों में सामंती व्यवस्था से विद्रोह का पुट दिखता है. इसलिए इस नाच के दर्शक भी उसी वर्ग से होते हैं, जो या तो मजदूरी करते हैं या फिर मध्यम वर्गीय किसान से आते हैं.
कैसे होता विदापत नाच
विदापत नाच के लिए बस खुले जगह की आवश्यकता होती है. बांस के सहारे तिरपाल टांग कर स्टेज बनाया जाता है, जो तीन ओर से खुला रहता है. साज में ढोल, नगाड़ा, हारमोनियम और क्लारनेट का इस्तेमाल किया जाता है. इसमें संवादगीत का प्रयोग किया जाता है. इस नाच मंडली में कोई महिला सदस्य नहीं होती है. महिला का किरदार भी पुरुष कलाकार ही निभाते हैं.