14 सितंबर को भारत हिंदी दिवस के रूप में मनाता है. हिंदी केवल एक भाषा मात्र नहीं बल्कि भारत के मस्तक पर रखा वह मुकुट समान है जो इसकी गरिमा और सुंदरता का बखान करता है. हिंदी दिवस हमें आजादी के लिए संघर्ष करने वाले उस युग में लेकर जाता है जब अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति हासिल करने के बाद हमारे पुरखों ने देश के संविधान को तैयार करते समय हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया. वो दिन 14 सितम्बर 1949 का था जब आजाद भारत के संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी. और तब से प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है. बात सत्ता व हिन्दी की हो तो बिना बिहार के वह चर्चा नीरस ही रहेगी. हिन्दी साहित्य की बात करें तो इस घड़े में बिहार के ही अधिकतर विद्वान रहे जिनके नामों को निकाल दिया जाए तो घड़ा ही खाली दिखने लगे. हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों. जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी. बिहार के रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे.दिनकर’ आजादी पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और आजादी के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गए.
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ. दिनकर जब दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया. परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया. बचपन से गरीबी देख और झेल पले बढ़े दिनकर को भावनाओं की भी कद्र थी और भावनाओं को शब्दों में पिरोने की अदभुत कला भी. उसी कला ने देश व हिन्दी दोनों को एक दिनकर दिया. 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया. साथ ही उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था. बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये. 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर उन्होंने कार्य किया.
दिनकर ने रेणुका और हुंकार में कुछ ऐसी रचनाएं लिखी जिससे अंग्रेज प्रशासकों की नींद उड़ा दी. 4 साल के अंदर 22 तबादले का शिकार झेले दिनकर तब भी उतने ही मजबूत थे. ना तो दिनकर धमकियों से डरते ना ही उनकी कलम. दोनो उसी अंदाज में आगे बढ़ते रहे. 1947 में देश आजाद होने के बाद दिनकर बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष, राज्यसभा सदस्य, कुलपति व भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार तक बने.
दिनकर के लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्हें उनकी रचना उर्वसी के लिए ज्ञानपीठ मिला उनके समकालीन कवि रहे हरिवंशराय बच्चन से किसी ने पूछा कि दिनकर को मिला पर आपको नहीं. ऐसा क्यो.. इसपर उनका जवाब था कि दिनकर को एक नहीं बल्कि 4 रचनाओं के लिए 3 और ज्ञानपीठ मिलना चाहिए. ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है.
दिनकर अपनी रचनाओं को वर्तमान परिस्थितियों से जोड़ते थे. उनका लिखा कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है. यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है. वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है. संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है. क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है.
वो किसान और मजदूर तक की आवाज बने. इसका एक कारण उनका किसानों के घर से आना था. वो सीधी सरल भाषा को भी बहुत प्रभावी ढंग से प्रयोग में लाते थे. जो लोकप्रिय बनानेवाली उनकी संबोधनात्मक शैली थी. 1933 में जब उन्होंने पहली बार बिहार हिंदी कवि सम्मलेन में अपना लिखा सुनाया तो वो मच्छरों के काटने से जागने के कारण एक रात पूर्व लिखी हुई कविता – ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल’को सुनाए. दर्शक उन्हें बार-बार सुनने के लिए पागल होते थे. वो सत्ता से टकराते भी, उसके करीब जाते भी.पर कभी हिले नहीं, कभी डरे नहीं. आज उसी हिन्दी को जिवित करने की जरूरत है. जो न्याय,प्रेम और अधिकार दिलाने की आवाज है.
Posted by : Thakur Shaktilochan Shandilya