खट्टर काका के नाम से हिन्दी किताबों में रुचि रखने वाले लोग परिचित होंगे. दरअसल यह एक काल्पनिक किरदार का नाम है लेकिन इस किरदार को इतनी प्रसिद्धि मिली कि लोग इसे रचने वाले लेखक को भी इसी नाम से जानने लगे. ‘खट्टर काका’ प्रसिद्ध मैथिली लेखक हरिमोहन झा द्वारा रचा गया एक किरदार है जिसके माध्यम से वे व्यंग्य और कटाक्ष के जरिए सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों पर प्रहार करते हैं.
अपनी बहुमुखी प्रतिभा से उन्होंने धर्म, दर्शन, इतिहास, पुराण सब में हास्य और विनोद ढूँढ़ा और लोकविरोधी प्रसंगों की बहुत दिलचस्प अंदाज में कड़ी आलोचना की. शायद इसीलिए उनको ‘खांटी आलोचक’ के नाम से भी जाना जाता है. बिहार के वैशाली में जन्मे हरिमोहन झा मूलरूप से मैथिली भाषा के लेखक थे. उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में मास्टर्स की और बाद में इसी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर और फिर विभागाध्यक्ष बने. आज उनकी जयंती पर हम आपको उनकी बहुचर्चित कृतियों का परिचय दे रहे हैं.
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हरिमोहन झा ने अपना पहला उपन्यास 1933 में लिखा जिसका शीर्षक था― ‘कन्यादान’। इस उपन्यास ने हरिमोहन झा को तो एक लेखक के रूप में स्थापित किया ही, मैथिली साहित्य को भी इसने बहुत लोकप्रिय बनाया. इस उपन्यास में उन्होंने मैथिली समाज में अंधविश्वास और पाखंड की जकड़ में फंसी हुई महिलाओं की स्थिति को दिखाया था. इसका कथानक इतना जबरदस्त था कि मिथिला क्षेत्र से बाहर के लोगों ने भी इसे बहुत पसंद किया और जल्दी ही यह हिंदी में भी प्रकाशित हुआ.
कन्यादान उपन्यास की प्रसिद्धि को देखते हुए उन्होंने इसका अगला भाग ‘द्विरागमन’ शीर्षक से लिखा. इसमें उन्होंने मिथिला क्षेत्र की महिलाओं की जीवनशैली को दिखाया था. इसे भी लोगों ने बहुत पसंद किया लेकिन उनको असली प्रसिद्धि 1948 में प्रकाशित व्यंग्य कृति ‘खट्टर ककाक तरंग’ से मिली. इस किताब को बाद में ‘खट्टर काका’ नाम से हिंदी में छापा गया. ये किताबें मैथिली और हिंदी दोनों भाषाओं में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हैं.
सवांद शैली में लिखी गई इस किताब में ‘खट्टर काका’ नाम का एक काल्पनिक किरदार है जो रूढ़िवादियों और धार्मिक पोंगापंथियों की जमकर धुनाई करते हैं. ऐसा करते हुए वे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत किसी पौराणिक ग्रंथ या देवी-देवता को बिना कटाक्ष किए नहीं छोड़ते. हर चीज को वे उल्टी नज़र से देखते हैं. अपनी बातों और तर्कों से वे ऐसा उलझा देते हैं कि सामने वाले के पास कोई जवाब नहीं बचता. हिन्दू देवी-देवताओं पर किए गए उनके तीखे व्यंग्यों के कारण कई आलोचकों ने उनको नास्तिक और हिन्दू विरोधी करार दिया था.
हरिमोहन झा ने अपनी सारी रचनाएँ मूलरूप से मैथिली भाषा में लिखीं जिनकी प्रसिद्धि को देखते हुए बाद में उनका कई और भाषाओं में अनुवाद किया गया. उन्होंने मिथिला की संस्कृति का बेहद करीब से अवलोकन किया जिसकी झलक हमें लगभग उनकी सभी कृतियों में मिलती है. आज भी वे मैथिली भाषा में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में से एक हैं. उनकी अन्य कृतियों में ‘प्रणम्य देवता’, ‘रंगशाला’ , ‘चरचरी’ और ‘जीवन यात्रा’ आदि उल्लेखनीय हैं.