Navratri 2024: बिहार में यहां स्थापित हुई थी दुर्गा की पहली पार्थिव प्रतिमा, अपनी पद्धति और खास मिट्टी का होता है उपयोग
Navratri 2024: करीब 700 वर्षों से पूर्णिया का बनैली राज घराना पार्थिव प्रतिमा स्थापित कर देवी आराधना कर रहा है. बनैली राज में दुर्गास्थान को देविघरा कहा जाता है. बनैली राज के मूल संस्थापक देवानंद सिंह चौधरी ने 1725 में पहला देविघरा अमौरगढ़ में बनवाया था.
Navratri 2024: पटना. बिहार में नवरात्रि के दौरान दुर्गा की पार्थिव प्रतिमा स्थापित करने की परंपरा लगभग 700 साल पुरानी है. यह परंपरा बंगाल के रास्ते बिहार पहुंची थी. पूर्णिया प्रमंडल के बनैली राज घराने का बिहार में सबसे पहले पार्थिव प्रतिमा स्थापित कर मां दुर्गा की पूजा करने का श्रेय जाता है. करीब 700 वर्षों से पूर्णिया का बनैली राज घराना पार्थिव प्रतिमा स्थापित कर देवी आराधना कर रहा है. बनैली राज में दुर्गास्थान को देविघरा कहा जाता है. बनैली राज के मूल संस्थापक देवानंद सिंह चौधरी ने 1725 में पहला देविघरा अमौरगढ़ में बनवाया था, जो 1934 के महाभूकम्प में धराशायी हो गया. इसके बाद 1870 में बनैली के राजा लीलानंद सिंह की धर्मपत्नी रानी चंडीश्वरी देवी ने चंपानगर में पार्थिव दुर्गा की स्थापना कर पूजन की शुरुआत की, जो आज भी वहां पूरी श्रद्धा के साथ हो रही है.
पूर्णिया के बाद दरभंगा में मिलता है पार्थिव प्रतिमा का इतिहास
दुर्गा की पार्थिव प्रतिमा की पूजा परंपरा के संबंध में बनैनी राज घराने के सदस्य कुमार गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि बिहार में 17वीं सदी से पहले दुर्गा की पार्थिव प्रतिमा की पूजा का कोई प्रमाण नहीं मिलता है. इस इलाके में इस परंपरा की शुरुआत करने का श्रेय हमारे परिवार को ही जाता है. कुमार गिरिजानंद सिंह ने कहा कि पूर्णिया के बाद दरभंगा में पार्थिव दुर्गा की स्थापना कर पूजा करने की परंपरा शुरू हुई. उन्होंने कहा कि मधुबनी जिले के नवटोल में पार्थिव दुर्गा की पूजा 1850 के आसपास शुरू हुई. संभवतः वहां भी बनैली राज परिवार ने ही मिट्टी की प्रतिमा बना कर जाया करती थी.
बनैली राज घराने की है खास पूजा पद्धति
कुमार गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि कि उनके परिवार के पास खास तौर पर तैयार की गयी पूजा पद्धति है. उन्होंने कहा कि कुमार रमानंद सिंह ने इस विलक्षण दुर्गा पूजा पद्धति को तैयार किया था. एन्होंने इस पद्धति को बनाने में मिथिला के प्रकाण्ड पंडितों से परामर्श और मार्गदर्शन लिया है. मंगरौनी के व्याकरणा तीर्थ साहित्य शिरोमणि पंडित ताराचरण झा, महामहोपाध्याय व्याकरणातीर्थ पंडित प्रवर शशिनाथ झा एवं महामहोपाध्याय ज्योतिषाचार्य पंडित प्रवर मुरलीधर झा के सहयोग से यह तैयार किया गया था. आज भी हमारे परिवार में उसी पद्धति से पूजा हो रही है. वैसे उस पद्धति से विस्तृत रूप से पूजा करना आज की तारीख में काफी कठिन हो चुका है.
कचैटी मिट्टी से बनायी जा रही देवी की प्रतिमा
मूर्तिकार रामपाल ने बताया कि पूर्णियां में दुर्गा जी की मूर्ति कचैटी मिट्टी से बनाई जाती हैं. इसमें एक काली मिट्टी तो दूसरी पीली मिट्टी होती है. इस मिट्टी से बनी मूर्ति बहुत ही मजबूत व शाइनिंग होती है. मिट्टी चांप के खेत से लाई जाती हैं, जो महंगा होता है. मूर्ति बनाने में लकड़ी, बांस, कांटी, पुआल आदि का भी उपयोग किया जाता है. बनैली राज परिवार के साथ-साथ आज शहर के तमाम प्रतिमाओं का निर्माण भी बंगाल से आए मूर्तिकार ही कर रहे हैं. खुश्कीबाग स्थित कप्तान पाड़ा मुहल्ला खास तौर पर प्रतिमा निर्माण के लिए ही जाना जाता है. पहले यह बंगाल के कारीगरों का बसेरा था, पर कुछ लोग बाहर चले गये.