Navratri: सनातन धर्म की साक्त परंपरा में बलि का है खास महत्व, अनुष्ठान से पहले रखें इन बातों का ध्यान
Navratri: साक्त संप्रदाय के सबसे पुराने ग्रंथ पिंडलामत कहता है कि नरबलि भगवती को अर्पित करना चाहिए. इस संप्रदाय में समय-समय पर शास्त्रानुसार भगवती को नरबलि अर्पित करने का विधान रहा है. यहां नर का अर्थ मानव से नहीं है. सनातन धर्म में मादा की बलि वर्जित है.
Navratri : पटना. सनातन की साक्त परंपरा में बलि अर्पण का खास महत्व है. यह प्राचीन उपासना पद्धति का एक विधान है, जिसका पालन प्रत्येक देवी उपासक करते है. साक्त संप्रदाय के सबसे पुराने ग्रंथ पिंडलामत कहता है कि नरबलि भगवती को अर्पित करना चाहिए. इस संप्रदाय में समय-समय पर शास्त्रानुसार भगवती को नरबलि अर्पित करने का विधान रहा है. यहां नर का अर्थ मानव से नहीं है. सनातन धर्म में मादा की बलि वर्जित है. सनातन धर्म में मादा बलि को पाप की संज्ञा दी गयी है. यह सनातन धर्म का शक्ति पूजक संप्रदाय है, जो देवी की आराधना करता है.नरबलि के संबंध में पं राजनाथ झा कहते हैं कि सभी नर की बलि दी जा सकती है. चाहे वो जीव हो या फल. पंडित राजनाथ झा कहते हैं कि मादा केवल गौ नहीं है. गौ हत्या जैसा ही पाप बकरी हत्या और मुर्गी हत्या पर भी लगता है. आज हिंदू गर्भ में बेटी की हत्या कर रहे हैं, यह महापाप है.
विद्यापति ने अपनी पुस्तक में विधि का विस्तार से किया है उल्लेख
महाकवि विद्यापति ने दुर्गाभक्तितरंगिणी में दुर्गा के समक्ष बलिप्रदान की विधि का विस्तार से उल्लेख किया है. उन्होंने कालिका-पुराण के वचन को उद्धृत किया है-
कन्यासंस्थे रवाविषे या शुक्ला तिथिरष्टमी।
तस्यां रात्रौ पूजयितव्या महाविभवविस्तरैः।।
नवम्याम्बलिदानन्तु कर्तव्यं वै यथाविधि।
यज्ञहोमञ्च विधिवत्कुर्यात् तत्र विभूतये।।
शक्ति उपासना के शास्त्रीय-ग्रन्थों में बलि के विधान मिलते हैं. दुर्गासप्तशती में भी कहा गया है-
जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम् ।
प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम् ॥ (दुर्गासप्तशती, 12.11)
और भी,
पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः॥२०॥
विप्राणां भोजनैहोमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम् । (दुर्गासप्तशती, 12.20-21)
उत्तर प्रदेश में भी रही है यह परंपरा
मिथिला या बंगाल में ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में भी प्राचीन काल से देवी को बलि अर्पित करने का विधान रहा है. उत्तर प्रदेश में प्राप्त सबसे पुरानी पांडूलिपि में भी दुर्गापूजा-पद्धति के तहत बलि देने का विधान उपलब्ध होता है. यह मुदाकरण त्रिपाठी द्वारा विरचित है. उपलब्ध पाण्डुलिपि जगन्नाथ नामक व्यक्ति द्वारा 1847 ई. में लिखी हुई है – कुशादिकमादाय- दशवर्षावच्छिन्नदुर्गाप्रीतिकामनया अमुं छागमग्निदैवतं दुर्ग्गायै अहं घातयिष्ये इति संकल्पयित्वा एष छागबलिर्दुर्गायै नमः इति निवेद्य… इसमें कहा गया है कि दस वर्षों तक दुर्गा देवी की कृपा पाने के लिए इस छाग की बलि मैं दे रहा हूँ.
इन बातों का रखा जाता है ध्यान
देवी को बलि अर्पित करने से पहले कई खास बातों का ध्यान रखा जाता है. इस संबंध में पंडित भवनाथ झा ने कहते हैं कि बलि प्रदान करने में काफी सतर्कता बरतनी चाहिए. यह जितना फलदायी है, उतरा ही विनाशकारी भी है. पंडित झा कहते हैं कि बलि देने से पूर्व कम से कम एक वर्ष तक उस उसका लालन-पालन करना अनिवार्य है. बलि विधान में यह देखा जाता है कि वो बीमारी न हो, वह छह माह से छोटा और आठ वर्ष से बड़ा न हो, उसका बधिया न किया हो. उसके दोनों कान इतने लंबे न हों जिससे पानी पीते समय उसके दोनों कान भी पानी का स्पर्श करे. यदि उसे कुत्ते ने काट रखा है, तो उसकी बलि नहीं दी जा सकती है. पंडित झा कहते हैं कि बलिप्रदान के लिए जिस खड्ग का उपयोग होता है, वह भी ब्रिटिशकाल के तलवार से बिल्कुल अलग होता है. वर्तमान में इस विशेष खड्ग को बनाने में कर्णाटकाल की आकृति का पालन होता है.