प्रभात खबर के 25 साल: छोटी-छोटी घटनाओें का मर्म समझकर बिहार में हासिल की प्रतिष्ठा, चौंकाने वाली रही यात्रा
एक छोटी- सी पुरानी खबर से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं. बात वर्ष 1992-93 की रही होगी. तब आरा के अबरपुल इलाके के मासूम बच्चों ने एक जुलूस निकाला था. उनके हाथ में स्लेट की तख्तियां थीं. उन पर लिखा था- शराब नहीं, स्लेट-पेंसिल दो. तब प्रभात खबर केवल रांची से छपता था. आरा में बच्चों के उस जुलूस की छोटी-सी खबर छपी. अगले दिन अखबार ने उस पर संपादकीय लिखा. अखबार बच्चों के पक्ष में खड़ा था. उसने लिखा कि बच्चे बदलाव चाहते हैं. वह अपना भविष्य चाहते हैं. यह समाज-राजनीति का दायित्व है कि वह बच्चों के सपनों को पूरा करने में अपनी सार्थकता साबित करे. यह वाकया तब का है, जब बिहार में शराबबंदी को लेकर कोई सामाजिक-राजनीतिक विमर्श नहीं था.
अजय कुमार, संपादक बिहार: एक छोटी- सी पुरानी खबर से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं. बात वर्ष 1992-93 की रही होगी. तब आरा के अबरपुल इलाके के मासूम बच्चों ने एक जुलूस निकाला था. उनके हाथ में स्लेट की तख्तियां थीं. उन पर लिखा था- शराब नहीं, स्लेट-पेंसिल दो. तब प्रभात खबर केवल रांची से छपता था. आरा में बच्चों के उस जुलूस की छोटी-सी खबर छपी. अगले दिन अखबार ने उस पर संपादकीय लिखा. अखबार बच्चों के पक्ष में खड़ा था. उसने लिखा कि बच्चे बदलाव चाहते हैं. वह अपना भविष्य चाहते हैं. यह समाज-राजनीति का दायित्व है कि वह बच्चों के सपनों को पूरा करने में अपनी सार्थकता साबित करे. यह वाकया तब का है, जब बिहार में शराबबंदी को लेकर कोई सामाजिक-राजनीतिक विमर्श नहीं था.
प्रभात खबर ने समाज में घट रहीं ऐसी ही छोटी-छोटी घटनाओें का मर्म समझा. उस पर बार-बार हस्तक्षेप किया. भले उसका कोई नतीजा निकले या नहीं. पर अपने पत्रकारीय दृष्टिकोण पर खड़ा रहा. शायद यही वजह थी कि पटना से छपने के पहले से ही बिहार के पॉलिसी मेकर, राजनीतिज्ञ और यहां के बौद्धिक समाज में इस अखबार ने अपनी प्रतिष्ठा हासिल कर ली थी. इस बात का जिक्र इसलिए भी कि एक अक्तूबर, 1990 से मैंने प्रभात खबर में बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट काम शुरू कर दिया था. सचिवालय, विधानसभा, प्रेस कॉन्फ्रेंस में लोगों की प्रतिक्रियाओं से ऐसा लगता था. तब प्रभात खबर की कुछ कॉपियां दोपहर तक फ्लाइट से पटना आती थीं और उसी दिन राजनीतिज्ञों, प्रमुख नौकरशाहों तक जाती थीं.
प्रभात खबर का पटना ब्यूरो कार्यालय फ्रेजर रोड में था. एक कमरे का कार्यालय. खबरों को कंपोज करने के लिए एक टाइप राइटर. ए-फोर के कागज पर खबरें कंपोज होतीं और उसे बाजार के फैक्स से रांची भेजा जाता. कई मर्तबा फैक्स की लाइन खराब हुई, तो खबरें फोन से लिखवायी जातीं. बाद में फैक्स मशीन खरीदी गयी. उसके कुछ ही महीने बाद ही कंप्यूटर का आगमन हुआ. प्रभात खबर पहला अखबार था, जिसके ब्यूरो कार्यालय में कंप्यूटर लगा. पटना से छपने वाले स्थापित अखबारों में भी तब कंप्यूटर नहीं था. नयी टेक्नोलॉजी को अपनाने में प्रभात खबर का शीर्ष प्रबंधन प्राय: आग्रही रहा है, तमाम आर्थिक दबावों के बावजूद.
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रांची से निकलकर प्रभात खबर का पटना से प्रकाशन शुरू होना ठहरे पानी में हलचल पैदा करने जैसा था. इसकी वजह उसकी वैचारिकी थी. इस अखबार का विचार पक्ष उसकी खास पहचान बनी. सामान्य-सी लगने-दिखने वाली खबरों के पीछे का सच सामने लाया. रांची से लेकर पटना तक पाठकों के छोटे-छोटे समूहों से संवाद किया गया. समाज की जरूरत और जिजीविषा को इस अखबार ने शब्द-आवाज देने का जतन किया.
नब्बे के दशक में सामाजिक तनावों की वजहों के बारे में सीरीज में रिपोर्ट लिखी. कृषि आधारित समाज, कृषि का संकट, उससे पैदा हुए तनाव, रोजगार, पलायन और बिहार में सुशासन की जरूरतों को केंद्र में रखा. सीमित संसाधन वाले प्रभात खबर जैसे अखबार के सामने कई स्तरों पर चुनौतियां खड़ी रही हैं. बड़े घरानों के अखबार समूहों के सामने बिहार-झारखंड की मिट्टी से जुड़े प्रभात खबर की यात्रा बहुत सारे लोगों को चौंकाती है.
POSTED BY: Thakur Shaktilochan