Rajnagar History: वो कभी हसीन सपना थी, लोग जलते ‌थे, फिर ‘जलजले’ ने यूं उजाड़ा… आज भी तड़पती है

Bihar Rajnagar History: कोहरे से लिपटी सुबह. हर कोना सुनसान. दोनों तरफ गिरे पत्तों पर ओस की बूदें बता रही हैं कि यहां रात भर कोई रोया है. वीरान खंडहरों की दीवारों में पड़ी मोटी दरारें मानो दहाड़ मार कर रो रही हैं. विशाल महल की बची सीढ़ियों पर से उखड़े हुए मार्वल बता रहे हैं कि वक्त ने यहां अपने कदमों के निशां तक मिटा दिये हैं. सन्नाटे के बीच श्यामा मंदिर से आती घंटी की आवाज अचानक उधर खींच ले जाती है, जहां एक अलौलिक दुनिया और असीम शांति का एहसास होता है.

By Ashish Jha | January 15, 2025 8:04 PM
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Bihar Rajnagar History: दर्द इस शहर को भी होता है क्या बता, मुझे ये शहर तड़पता क्यों लग रहा है.. शायर भवेश नाथ का शब्द–चित्र आग से तबाह हुए लॉस एंजिल्स या कैलिफोर्निया के नहीं हैं. न ही हाल में आए भूकंप में उजड़े तिब्बत के है. ये दर्द-ए-बयां नेपाल सीमा से सटे बिहार के मधुबनी जिले के ‘खंडहरों का शहर’ का है.

किसी को भी ये कहानी सुनाएंगे तो कहेगा क्या इस उजाड़ पड़े खंडहरों की कहानी लेकर बैठ गए. पर असलियत ये नहीं है. सूरज की रोशनी में तपती, बारिश में 2-2 इंच खिसकतीं ये जर्जर दीवारें कभी एक हसीन सपना हुआ करती थीं. किसकी? मिथिला के खंडवाला राजवंश के शासक महाराजा रमेश्वर सिंह की.

महाराजा रमेश्वर सिंह कहते थे कि इसे राजधानी बनाऊंगा. लोग तर्क देते कि नेपाल की सीमा से सटा है. इसे कैसे राजधानी बनाइएगा. आए दिन कोई यहां घुसा, कोई वहां भागा. तो राजा साहब ने 250 से अधिक कमरों वाले रमेश्वर विलास पैलेस बनवा दिया. बड़े–बड़े मंदिर में खड़े करा ‌दिए.

बिहार में थी भारत की पहली टाउनशिप कहेंगे, तो कुछ गलत न होगा

राजनगर के दस्तावेज सबूत हैं, 1898 में ही राजनगर को शहर बना दो का आदेश पारित हो गया था. 1905 आते–आते राज नगर शहर का रूप लेने लगा था. चमकती दीवारें, सुंदर–सुडौल बने भवन, चौड़ी चमकती सड़कें. 1926 में बना शारदा मंदिर जो भी देखता कहता ये तो विदेश है. 

ऐरे–गैरे मिस्‍त्री ने नक्‍शा पास नहीं किया था, वास्तुकार आए थे बसाने

राजनगर के इतिहास पर बोलते हुए सुनील कुमार झा कहते हैं कि जिस प्रकार दिल्ली को लूटियन ने बनाया, उसी प्रकार राजनगर को वास्तुकार डॉ. एमए कोरनी ने मन से बनाया था.

सीमेंट से बनाई जा रही थीं इमारतें, कभी न गिरने की बजाई डुगडुगी

कहते हैं कोरनी ने ईमारत बनाने की कोई नई तकनीक ढूंढ निकाली थी. कुछ ऐसा ढूंढ के लाए थे कि एक बार जो दीवार खड़ी हो गई तो उसका जोड़ ‘फेवीकोल का मजबूत जोड़’ भी उसके आगे फेल हो जाएगा. हाथी ढकेले तब भी ईमारत टस से मस नहीं होगी. असल में वो सीमेंट लेकर आए थे. दावा था कि उनकी बनाई इमारतें किसी भी हाल में ध्वस्त नहीं हो सकतीं. 

राजनगर तो जैसे शिल्पकारों की प्रेमिका बन गया

दावा है कि सबसे पहले सीमेंट का प्रयोग राजनगर में ही किया गया था. सुनील कुमार झा कहते हैं कि कोरनी तिरहुत सरकार के कर्जदार थे और कर्ज चुकाने के बदले उन्होंने अपने हुनर को यहां ऐसे उकेरा कि वो वास्तुविदों के आदर्श बन गये. राजनगर के महल ही नहीं, खंडवाला राजवंश का सचिवालय भी तिरहुत सरकार के किसी दूसरे इमारत से बड़ा है. ये इमारतें अद्भूत वास्तुशिल्प का नमूना है. 

औपनिवेशिक वास्तुकला से प्रभावित है वास्तुशिल्प

आइआइटी खड़कपुर से वास्तुकला में पीएचडी कर चुके वास्तुविद डॉ मयंक झा कहते हैं कि राजनगर की नव-शास्त्रीय वास्तुकला बंगाल की औपनिवेशिक वास्तुकला से प्रभावित है. यह इमारत चाला शैली से भी प्रेरणा लेती है, जो बंगाल मंदिर वास्तुकला का एक प्रमुख तत्व है.

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वास्तुविद मयंक झा कहते हैं,’जो चीज़ यहां अद्वितीय है वह इमारत के अंदर एक गुंबद का ढांचा है. स्क्विंच और पेंडेंटिव रखने की लोकप्रिय शैली के विपरीत, यहां मौजूद गोलाकार ढांचा अपने स्वरूप के अनुरूप है, इसके सर्पिल बांसुरीदार स्तंभ गोलाकार कंक्रीट रिंग का आधार बने हैं.’ इमारत की एक विशेषता का उल्लेख करते हुए वो कहते हैं,’इमारत के पोर्टिको में हाथी और ओबिलिस्क का वास्तुशिल्प अनुकूलन है, जहां चार हाथियों को प्रवेश द्वार के लिए मेहराब का आधार बना देखा जा सकता है.’

राजनगर में बिछा है मंदिरों का जाल

ऐतिहासिक भवनों के साथ ही यहां कई महत्वपूर्ण मंदिरों का भी जाल बिछा है. तंत्र साधना में काली का अंतिम रूप (शिव की छाती से उतर कमल के फूल पर मुस्कुराती काली) विश्व में केवल यहीं स्थापित है. कहा जाता है कि महान तांत्रिक महाराजा रामेश्वर सिंह ने अपनी तंत्र साधना की पूर्णाहूति के बाद काली के इस अंतिम रूप को यहां स्थापित किया था. अमावस की रात मार्बल जैसी चमक मां काली के इस मंदिर को ताजमहल से भी ज्यादा हसीन बना देती है.

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हाय रे टाइटेनिक, तैरने से पहले ही डूब गया

आप टाइटेनिक की कहानी तो जानते ही हैं न? हॉलीवुड में फिल्म भी बनी है. बड़ा पापुलर है. ऑस्कर भी जीती है. नहीं देखी? ठीक बस इतना बता देते हैं कि ये जहाज जो कभी नहीं डूबेगा. यही कहा था बनाने वाले ने. लेकिन पहली यात्रा भी पूरा न कर सका. 300 से ज्यादा लोगों को लेकर समंदर में समा गया. ठीक वही हुआ राजनगर में 15 जनवरी 1934 की दोपहर. दुल्हन सा सजा राजनगर महज 15 मिनटों में चूर–चूर हो गया. ऊंचे–ऊंचे भवन जमींदोज हो गए थे. राजनगर टाउनशिप की हर ईमारतें खंडहर बन गई.

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राजनगर जो बछौर था, रमेश्वर सिंह का सपना बेठौर हो गया

क्या खूब लिखा है कवि सुनील कुमार शर्मा ने…

चाहतें बदल देती हैं

चेहरा और अनुभूतियां

शब्द बदल देते हैं परिणाम

उजड़ी इमारतें करती हैं

अनुवाद घटनाओं का

घास ढंक देती है

सब गुनाहों को

अब मैं घास होना चाहता हूं

आपके लिए आज भी खड़ा है राजनगर

आज यह लुट चुका राजकुमार राजनगर न केवल एक पिकनिक स्पॉट है, बल्कि यहां कई फिल्मों की शूटिंग भी हो चुकी है. मैथिली की पहली फिल्म ममता गाबै गीत जिसका निर्माण 1963 में शुरू हुआ, उसकी अधिकतर शूटिंग राज नगर में ही हुई है. राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत मैथिली फिल्म मिथिला मखान की शूटिंग भी राजनगर में हुई है. इसके अलावा कई और फिल्म और वृत्तचित्र का निर्माण राजनगर में हो चुका है.

फिल्मकार दीपेश चंद्र कहते हैं कि राजनगर आकर एक अलग ही अनुभूति होती है. यह खंडहरों का शहर तो है ही एक अलौकिक जगह भी है, जहां आकर आनंद और शांति दोनों मिलती है.

फोटो साभार- इसमाद फाउंडेशन, दीपेश चंद्र, नितिन चंद्रा, मयंक झा.

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